Tuesday, November 22, 2011

घनश्याम वासनिक (Ghanshyam Wasnik)

         हमारे आस-खास कुछ खास लोग भी हो सकते हैं.पर चूँकि,वे हमारे आस-पास होते हैं अत: हमारे लिए वे खास नहीं होते.वे हमारे बाबा/दादा हो सकते हैं या फिर, गाँव के रिश्ते में काका.हमें उन के बार में पता होता है, उनके जीवन और संघर्ष के चर्चे हम सुने होते हैं. मगर, चूँकि वे हमारे आस-पास होते हैं,शायद इसी वजह की वे हमारे लिए कोई खास मायने नहीं रखते.म.प्र. के एक छोटे-से गाँव नांदी(कटंगी) के घनश्याम वासनिक मुझे कुछ ऐसा ही नाम लगा.
       पिछले दिनों  मार्च 11  में मेरा जाना बालाघाट हुआ था.रिटायर्मेंट के बाद दिन इत्मिनान के होते हैं. छुट्टियों का बहाना नहीं होता और सबसे बड़ी बात, आप बड़े सुकून में होते हैं,फुर्सत में होते हैं.आप अपने मन पसंद काम अब ढंग से कर सकते हैं.किसी बात की जल्दी नहीं होती.
      इस बार मैंने नांदी के घनश्याम वासनिक जी से मिलने का प्लान बनाया.वह 22 मार्च का दिन था.हम कार से सीधे उनके घर पहुंचे.दोपहर के करीब 2 बज रहे होंगे.आव-भगत के बाद मैंने उनसे  इंटरव्यू लेने की इजाजत ले ली.साहेब जी ने सहज ही हाँ कर दी.यहाँ मैं बता दूं कि मेरे साथ एक और सज्जन थे-येरवाघाट के खिनारम जी बोरकर. साहेब जी भी सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में एक जबर्दस्त व्यक्तित्व है. इसकी चर्चा हम फिर कभी अन्यत्र  करेंगे.
        घनश्याम वासनिक जी करीब 85 वर्ष के हैं..शरीर अभी काफी तंदुरस्त है.हल्के श्याम वर्ण के ऊँची-पूरी कद-काठी.चेहरे पर आज भी कुछ कर गुजर जाने की दृढ़ता और आँखों में वक्त को पकड़ने की मजबूती. मैंने हमेशा उन्हें सफेद धवल वस्त्रों में देखा है.छुटपन से ही मैं उनके व्यक्तित्व से बड़ा प्रभावित था.
        हमारे गुरु जी बालकदास साहेब से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे.गुरु जी के कार्यक्रम के सिलसिले में उनका आना हमारे यहाँ होते रहता था.और जब सत्संग चलती तो रात-रात भर मैं उनकी चर्चा सुनता. बाद के दिनों में,  मैं  उनकी चर्चा में शरीक होने लगा था.मुझे ज्ञान-ध्यान की बातों में बड़ी दिल-चस्पी रहती थी.पारिवारिक दूसरे कार्यों से मैं शुरू से ही अलग था. पिता जी मेरी फितरत समझते थे और इसलिए वे मुझे अन्य कार्यों में होने की अपेक्षा नहीं रखते थे.पढ़ना और सत्संग, ये मेरा शौक था.ये मेरी हाबी थी, ये मेरा जूनून था.यह शौक आज भी बदस्तूर जारी है. हाँ, अब कागज-पेन की जगह लेपटाप आ गया है.
        बहारहाल,हम बात घनश्याम वासनिक जी की कर रहे थे.हमारे इधर अर्थात बालाघाट-भंडारा जिले में जहाँ  कहीं बड़ी चर्चा हो, सत्संग हो या शादी-ब्याह का मौका हो, लोग घनश्याम वासनिक जी को याद करते हैं.उन्हें लेने के लिए आदमी दौड़ाते हैं.उनके आने से कार्यक्रम का जैसे लेवल बढ़ जाता है .यह आज भी जारी है. यद्यपि अब वे ज्यादा चल-फिर नहीं सकते हैं.
      एक और खास बात- उनकी गायन की दक्षता का कोई मेल नहीं है.हजारों लोगों के बीच सामाजिक चेतना के भजन/गीत गाना मायने रखता है, खास कर हिन्दू भारत में.सवर्ण पटेल और साहूकारों के गाँवों में ढीढी निकालना, मंच पर सामाजिक चेतना के गीत गाना हिम्मत और अक्ल का काम है.आप घर में और अपने लोगों  के बीच जो चाहे बोल सकते हैं. मगर,सवर्ण हिन्दुओं के कार्यक्रमों में उनके स्टेज पर उनके देवी-देवता और धार्मिक-कर्मकांडों की पोल खोलना अलग बात है. यह माद्दा पैदा होने के लिए शेरनी का दूध पीना होता है.घनश्याम वासनिक जी ने बेशक, शेरनी का दूध पीया था.आप शेर की दबंगता और निडरता उनके चेहरे पर देख सकते हैं.
         हमारे गुरु बालकदास साहेब, घनश्याम जी को बराबरी का सम्मान देते थे. यद्यपि, वे उम्र में बड़े थे.गुरु जी, कबीर पंथी थे.वे कटंगी के महंत ज्ञानदास साहेब की गद्दी के महंत थे.ज्ञानदास साहेब अपने समय में कबीर विचारधारा के भारी विद्वान् थे.दूसरी तरफ, घनश्याम वासनिक जी बौद्ध धर्म के प्रकांड विद्वान् थे.वे बाबा साहेब के परम अनुयायी थे.उन्होंने बाबा साहेब को देखा था.वास्तव में,गुरु जी और घनश्याम वासनिक जी के बीच गुरु-शिष्य का सम्बन्ध था.

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