Tuesday, February 14, 2012

विठोबा मून पण्डे (Vithoba Moon Pande)

  संत विठोबा रावजी मून पंडे (1864-1924)

    विठोबा रावजी मून, रामटेक (महा.) के रहने वाले थे।   वे रामटेक में दलित जातियों के 'पंडे' थे।  उनका जन्म दलित महार समाज में हुआ था। विठोबा रावजी मून ने उन्नीसवी सदी में एक बड़े सामाजिक-आन्दोलन का नेतृत्व किया था।
     तब, दलित जातियों के अन्दर एक ऐसा वर्ग था जो हमेशा भक्ति-भाव और आध्यात्मिक चर्चाओं में रमा  रहता था। इन में जो लोग साधू हो जाया करते थे, वे देशाटन करते और भिक्षा-वृति से जीवन यापन करते थे। ये कबीर पंथी, रामानंद पंथी, शिव पंथी, महानुभाव पंथी, विट्ठल पंथी आदि सम्प्रदाय और पंथों के अनुयायी हुआ करते थे।  इन लोगों ने अपना एक अलग 'संत-समाज' बना लिया था।  उन्होंने अपने आचरण और व्यवहार के लिए नियम बना लिए थे, जिसे वे कडाई से पालन करते थे। संत अनिवार्यत: शाकाहारी हुआ करते थे।  वे मांसाहारियों के हाथ का भोजन नहीं करते थे। यहाँ तक कि विवाह आदि भी संतों के बीच ही हुआ करते थे।
        वास्तव में, देश के अन्दर सामाजिक जन-जाग्रति का पहला काम संतों ने किया था।  चूँकि संतों की खानी-बानी दुरुस्त थी, आचरण और व्यवहार में वे कड़क थे;  इसलिए सामान्य जनता में संतों की गहरी पैठ थी। लोग उनके उपदेशों को बड़े भक्ति-भाव से सुनते थे।  उन्होंने घूम-घूम कर सामाजिक गैर-बराबरी और  कुरूतियों, अंधविश्वासों पर जो चोट की थी।  उसके बगैर सामाजिक सुधार के आन्दोलनों के इतिहास को पढ़ा ही नहीं जा सकता।  विठोबा रावजी मून उसी संत-खानी की उपज थे। अब आईये, संत विठोबा रावजी मून के सामाजिक सरोकार की बारे में जानने का प्रयास करते है।
     नागपुर (महा.) के पास हिन्दुओं का एक तीर्थ-स्थल है-रामटेक।  यहाँ प्राचीन एक बहुत बड़ा तालाब है, जिसे अंबाळा तालाब  कहा जाता है।  तालाब से लगी हुई पहाड़ियां हैं, जिस पर बहुत-से मन्दिर बने हैं। यहाँ वर्ष में दो बार चैत और कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। हिन्दुओं में रामटेक का महत्व मृत्यु के बाद सम्पन्न किये जाने वाले दाह-संस्कार आदि क्रियाओं के कारण है।  दूर-दूर के लोग आकर रामटेक के इसी तालाब में अस्थि-विसर्जन, मुंडन और पिंड दान आदि करते हैं. यह सिलसिला वर्ष भर चलता हैं.
        इस तालाब में दलित समाज के लोग भी पिछले 20 -25  वर्षों से अस्थि-विसर्जन वगैरे करते आ रहे थे।  मगर, सन 1904  से हिन्दुओं के एक संगठन द्वारा दलितों को यहाँ आने से रोक दिया गया था।  हिन्दुओं का कहना था कि दलित जातियों के लोग गाय का मांस खाते हैं, इसलिए उन्हें यहाँ आने नहीं दिया जाएगा।  गाय को हिन्दू , गौ-माता कहते हैं।
    उस समय दलित जातियों में मृत-पशुओं का मांस खाया जाता था।  इसमें गाय भी थी।  दरअसल, दलित जातियों के पास आजीविका के अन्य साधन नहीं  थे। हिन्दुओं ने उनके कार्य नियत कर दिए थे।  इन कार्यों में घरों से मृत-पशुओं को उठा कर ठिकाने लगाना होता था।  जीविका के अन्य साधन न होने के कारण मृत-पशुओं का मांस खाना  दलित समाज के लोगों की मजबूरी थ। यह बात नहीं कि मृत-पशुओं का मांस, ये लोग शौक से खाते थे। क्योंकि, समय-समय पर दलित समाज में इसके विरुध्द सामाजिक-सुधार के आन्दोलन चले थे।
     अब यहाँ पर हमारे लेख में विठोबाराव जी मून का प्रवेश होता है। आइए, उनके बारे में जाने। विठोबाराव जी मून का जन्म सन 1964  में हुआ था।  सन 1892  के काल में नागपुर के इमामबाड़ा रोड पर शनिवारी मोहल्ले में उनके परिवार के साथ रहने का उल्लेख मिलता है। यहीं के मिशनरी स्कूल में विठोबाराव की प्रायमरी शिक्षा हुई थी। बड़े होने पर विठोबाराव ने कपास के छोटे-मोटे व्यापार से आजीविका की शुरुआत की थी।  वे सूती कपड़ा मिलों से रिजेक्टेड कपास सस्ते में खरीद कर और फिर उसे साफ कर मुम्बई जाकर बेच देते थे।  वे गावं-गावं घूम कर चिल्लर कपास भी खरीदते थे. गावं और शहर घूमते-घूमते विठोबाराव  की मुलाकात कई लोगों से होती थी। विठोबाराव दलित समाज के थे और तब, दलित समाज में समाज-सुधार के आन्दोलन चल रहे थे। एक बार मुम्बई  में उनकी मुलाकात शिवराम जानबाजी कामळे से हुई थी। कामले के सामाजिक सरोकार के प्रयासों से विठोबाराव मून बड़े प्रभावित हुए थे।
      विठोबा राव पढ़े-लिखे थे।  वे भाषण भी अच्छा करते थे।  व्यापार के सिलसिले में कई लोगों से मिलने के कारण उनकी अप्रोच अच्छी बन गई थी।  विठोबाराव मून ने  सामाजिक-क्षेत्र में उतरने का फैसला किया। आपने दलित जातियों द्वारा मृत-पशु का मांस खाए जाने के विरुध्द एक सशक्त आन्दोलन  चलाया जाना जरुरी समझा।  उस समय देश पर अंग्रेजी हुकूमत थी।  यद्यपि, अंग्रेजों के आने के बाद दलित जातियों की स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ था।  मगर, निश्चित रूप में हिन्दुओं के दबदबे में अंतर आया था।  ऐसे में विठोबाराव मून ने लोगों को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया।  मृत पशु का मांस खाना गन्दा और अस्वास्थ्यकर है, इस तरह की बातें  उन्होंने लोगों के सामने पुरजोर शब्दों में रखी।
     इसके अलावा दलित जाति के लोग हिन्दुओं के घरों में मृत्यु हो या शादी; के मौकों पर बाजा बजाया करते थे। यह अलग बात है कि इन्हें हिंदुओं की ख़ुशी में शामिल होने का अधिकार नहीं था।  हिन्दू , इन जातियों को अस्पृश्य समझते थे।  इन लोगों छूने या उसकी छाया पड़ने से हिन्दुओं को 'बिताळ' लगता था जिसे वे स्नान कर शुध्द करते थे।  इसी तरह हिन्दुओं के घरों में डिलेवरी के समय दलित समाज की महिला जा कर दाई का काम करती थी।  वह हिन्दू महिलाओं की डिलेवरी करवाती थी। उस समय अस्पतालों की सुविधाए नहीं थी, जैसे  आज गावं-गावं तक हैं।  दलित महिला हिन्दू घरों में महीनों तक जच्चे-बच्चे की मालिश और सफाई करती  थी।  तो भी इस दलित स्त्री के हाथ का पानी पीना हिन्दुओं के लिए अधर्म था।
     विठोबाराव मून ने इन सब सामाजिक- विसंगतियों को दूर करने का संकल्प लिया।  उन्होंने गावं-गावं और शहर-शहर जाकर महार समाज के लोगों से फार्म भरवाया कि वे अब से मृत पशु का मांस नहीं खायेंगे। वे दाई के काम से तौबा करेंगे।  वे हिन्दुओं के घरों में बाजा बजाने नहीं जायेंगे।  जन-जाग्रति के लिये उन्होंने गावं-गावं में भजन-मन्डळी बनायी।  समाज सुधार के इस आंदोलन में उन्हे अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।  किन्तु, यह भी सच है कि धीरे-धीरे इसका समाज पर अच्छा प्रभाव भी पड़ने लगा।
      यह बात उस समय की है, जब देश में मालगुजारी की प्रथा थी। तब , रामटेक के मालगुजार गोपाल गणेश फडनवीस हुआ करते थे, जो नागपुर के महाराजा रघुजीराव भोसले के अधीन काम देखते थे। विठोबा मून ने इन तमाम मुद्दों पर और विशेषत: अंबाळा तालाब की घटना बाबद महाराजा के पास गुहार करने की ठानी। रघुजीराव भोसले के दरबार में पेश होकर  कहा कि महाराज, दलित समाज के लोग वर्षों से रामटेक में अपने पूर्वजों की अस्थि-विसर्जन आदि कार्यों के लिए आते रहे हैं. किन्तु अभी हाल ही में हिन्दुओं ने इस पर रोक लगा दी है.महाराज की कृपा हो तो दलितों को वहां जाने की अनुमति मिले अथवा उन्हें वहां अलग घाट बनाने की परवानगी हो. विठोबाराव मून की बात का महाराजा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. उनकी बात से सहमत होते हुए महाराज रघुजी राव भोसले ने 28 अक्टू. 1903 को आदेश जारी किया कि दलितों को रामटेक के अम्बाला तालाब पर आने और अस्थि-विसर्जन आदि कार्य करने का अधिकार किया जाता है और कि उन्हें कोई रोक-टोक न करे. एक दूसरे आदेश द्वारा महाराजा ने अम्बाला तालाब पर गायमुख की ओर दलित जातियों  को पक्का घाट बनाने की अनुमति प्रदान की.
         महाराजा रघुजी राव का आदेश प्राप्त कर विठोबा मून ने तुरंत समाज के वृहत हित को ध्यान में रखते हुए पहाड़ी से नीचे घाट से लगी जमीन 75 x 80 फुट अपने नाम खरीद ली ताकि उस पर महार समाज के लिए पक्का घाट बनाया जाये. विठोबाराव मून के इस निस्वार्थ-भाव की सेवा से दूर-दूर के गावं और शहर की दलित जातियों में जय-जयकार होने लगी.
         इस तारतम्य में दलित जातियों की एक बड़ी सभा सन 1906 को रामनवमी के दिन अम्बाला तालाब के मैदान में हुई. सभा में  तालियों की गडगडाहट के साथ विठोबाराव मून के कार्यों को सराहा गया. दलित जातियों के बीच मृत-पशु का मांस खाना बंद करवाने, महाराजा रघुजी राव भोसले से मिलकर अम्बाला तालाब के उपयोग का अधिकार प्राप्त करना,घाट बनाने के लिए खुद के पैसे से जमीन खरीदना आदि उनके सामाजिक कार्यों का अभिनन्दन किया गया. सभा ने उन्हें घाट के 'पंडे ' की पदवी से नवाजा. उन्हें यह अधिकार दिया गया कि वे दलित जाति के आने वाले लोगों से घाट के निर्माण और देख-रेख के लिए सहयोग राशि प्राप्त करे.सभा में 'अन्त्यज समाज कमेटी' का भी गठन किया किया. इस कमेटी का जनरल सेक्रेटरी संत विठोबाराव जी मून 'पण्डे' को बनाया गया था.
        दि. 18 दिस. 1912 को जैराम पैकू सेट्या के मोतीबाग स्थित बाड़े में दलित जातियों की एक बड़ी सभा हुई. इस सभा में निर्णय लिया गया कि चूँकि, ब्रिटिश हुकूमत ने ईसाई मिशनरियों के माध्यम से स्कूल खोल कर  दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले हैं. अत: दलित समाज के सम्पन्न लोगों को इस दिशा में आगे आकर गरीब दलित बच्चों की मदद करनी चाहिए. दलित गरीब जातियों के अधिसंख्यक बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सके इसके लिए लिए अधिक से अधिक आवासीय स्कूल खोले जाने चाहिए. दूसरे, दलित जातियों की बस्ती और मोहल्लों में पीने के पानी के लिए कुए खुदवाने चाहिए. क्योंकि, हिन्दू उन्हें अपने कुओं का पानी भरने नहीं देते. सभा में यह भी निर्णय लिया गया कि दलित जाति के गरीब लोग अनन्य कार्यों से शहरों में आते हैं. मगर, वहां उनके रुकने की कोई व्यवस्था नहीं होती. हिन्दू  उन्हें  मकान नहीं देते, वे उनसे घृणा करते हैं. अत: शहरों में उनके रुकने के लिए धर्मशालाये बनानी चाहिए.
        ब्रिटिश हुकूमत में दलित जातियों के प्रति अंग्रेजों का रवैया वैसा घृणा का नहीं था जैसे अंग्रेजी शासन के पूर्व मराठों, पेशवाओं का था. अंग्रेजों का रवैया सुधारात्मक नहीं था. तो भी ब्रिटिश हुकूमत ने दलित जातियों के लिए शिक्षा और नौकरी के दरवाजे खोले थे जो हिन्दू धर्म और संस्कृति के चलते उनके लिए सदियों से बंद थे. ईसाई मिशनरियों के माध्यम से दलित जातियों के बीच कई संस्थाए संचालित हो रही थी. इसी प्रकार के महार समाज की एक संस्था के अध्यक्ष अंग्रेज अफसर  रेव्स रेंड जी.डी.फिलिफ थे. इस अंग्रेज अफसर के अध्यक्ष पद से निवृत होने के बाद सन 1920  में उक्त संस्था के अध्यक्ष विठोबाराव जी मून संत पंडे को बनाया गया था.
        इस समय देश के सामाजिक आन्दोलन के परिदृश्य में डा. बाबा साहेब आंबेडकर उतर चुके थे. उदारवादी हिन्दू भी दलित जातियों के अधिकारों के प्रश्न पर आगे आ रहे थे. जगह-जगह महार समाज के लोग सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे. इसी कड़ी में सन 1923  में एक बड़ी सभा नागपुर में एडव्होकेट जी.आर.प्रधान की अध्यक्षता में हुई थी. सभा में इस आशय का प्रस्ताव पारित कर कि गवर्नर की काउन्सिल में शासन की ओर से विठोबा राव जी मून को लिया जाय, मध्य प्रान्त और बरार के गवर्नर को भेजा गया था . मगर, विठोबाराव जी मून गवर्नर की काउन्सिल की शोभा न बढ़ा सके. सन 1924 में वे  हम से अलविदा हो गए.

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