Thursday, January 30, 2014

ढेड़

ढेड़  -  यह 'थेर ' शब्द का बिगड़ा हुआ रूप बताया जाता है। बौद्ध भिक्षुओं के प्रति हिंदुओं की घृणा सर्वविदित है। 'थेर' का मतलब बौद्ध भिक्षु है। 'महाथेर' उस भिक्षु को कहते हैं जिस थेर (भिक्षु ) ने 20 वर्ष पूर्ण कर लिए हो।  महाराष्ट्र, गुजरात,राजस्थान, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश और मध्य-प्रदेश में चमार, महार, खटिक, कंजर(गिहारा), रैगड़, बलई  आदि जातियों के लोगों को हिन्दू घृणा से 'ढेड' कह कर पुकारते है।

भंगी - 'भंगी' का अर्थ उससे हैं जिसक मान -सम्मान भंग कर दिया हो। मैला साफ करने /फेंकने वाली जाति को हिन्दू  'भंगी' कहते हैं।

चूहड़ा - 'चूहड़ा'  वास्तव में 'चुडा' का बिगड़ा हुआ रूप है जिसका अर्थ चुरा (भंग) करना है अर्थात जिनका मान -सम्मान भंग कर दिया गया हो। पंजाब में 'भंगी' को हिन्दू  'चूहड़ा' कह कर पुकारते हैं।

वाल्मीकि - यह पंजाब के गाँधीवादी हिन्दुओं द्वारा 'भंगियों' को दिया गया दूसरा नाम है। चूँकि  'चुह्डा' काफी घृणा  फैला चूका है अत: गाँधीवादी हिन्दुओं ने 'भंगियों पर 'वाल्मीकि'  नाम का नया लेबल लगा कर अपने 'पाप' को धोने की कोशिश की। वास्तव में, हिन्दुओं का यह प्रयास वाल्मीकि जाति को रामायण से जोड़ने का था।
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 स्रोत : 'महान दलित क्रन्तिकारी योद्धा मातादीन' लेखक सूरजपाल चौहान के प्रकाशकीय (शांति स्वरुप बौद्ध) से 

महार, चमार इस देश के शासक रहे हैं


सर स्टेफोर्ड क्रिप्स इंग्लैण्ड के एक बड़े इतिहासकार और राजनीतिज्ञ रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों का समर्थन हाशिल करने के लिए ब्रिटेन से जो कमेटी आयी, वह आपके ही नेतृत्व में थी। यही 'क्रिप्स मिशन' था ।
सर स्टेफोर्ड क्रिप्स ने भारत के इतिहास और विशेषत: अछूत जातियों के इतिहास का काफी अध्ययन किया था। भारत के राजनैतिक और अन्य संस्थानों के प्रतिनिधियों से मिलने के दौरान एक बार उन्होंने डा आंबेडकर से पूछा-
" क्या आपके सभी पुरखे हमेशा से भंगी, बैरा, खानसामा, बटलर आदि का कार्य ही करते आये हैं ?'
" नहीं जनाब, हमारे पुरखे  महार, चमार भी कभी इस देश के शासक रहे हैं, यह आप भी जानते हैं -डा आंबेडकर ने तुरंत जबाब दिया।

Barrister. Rajabhau D Khobragade

Barrister Rajabhau D Khobragade
एक समय बैरिस्टर राजाभाऊ देवाजी खोब्रागडे को बाबा साहब डॉ आंबेडकर का दायाँ हाथ कहा जाता था। वे सचमुच सही अर्थों में बाबा के वारिस थे। चाहे सामाजिक क्षेत्र हो या धार्मिक क्षेत्र हो।  चाहे लोगों को रिपब्लिकन पार्टी से जोड़ने का कार्य हो या फिर दलितों में शिक्षा के प्रसार का, राजाभाऊ खोब्रागडे तन कर बाबा साहब के पीछे खड़े होते थे।
बाबा साहब के ऐसे सिपहसालार का जन्म चंद्रपुर (महा.) में 25 सित 1925 को हुआ था।  आपके बचपन का नाम भाउराव था मगर प्यार से इन्हें राजाभाऊ कह कर लोग पुकारते थे। इनके पिताजी का नाम देवाजी खोब्रागडे था।  देवाजी खोब्रागडे एक खाते-पीते परिवार के थे।
एक बार बाबा साहेब भाषण दे रहे थे।  अपने लोगों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि समाज उन्हें एक-दो लडके चाहिए जिन्हें समाज के लिए कुछ करने लायक वे उन्हें बना सके। तब, देवाजी  ने भीड़ में से खड़े हो कर कहा था कि  बाबा साहब, ये मेरा लड़का लीजिए।  मैं इसे आपको देता हूँ।  वह लड़का राजाभाऊ खोब्रागडे ही था।
राजाभाऊ पढ़ने-लिखने में शुरू से ही होशियार था।  स्कूल और कालेज लाइफ़ में उसकी पढाई और निखर कर आई।  पढ़ने-लिखने के आलावा लीडरशिप के गुण राजाभाऊ में शुरू से ही थे।  सन 1943 से 1945 की अवधि में वे शेड्यूल्ड कास्ट स्टूडेंट फेडरेशन के वे महासचिव चुने गए।  आपने अपनी आवाज को लोगों तक पहुँचाने के लिए 'प्रजा सत्ता' नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन किया था। राजाभाऊ खोब्रागडे के पत्नी का नाम इंदुमती था।
 राजाभाऊ खोब्रागडे उच्च शिक्षा के लिए सन 1950 में लन्दन गए थे। वहां पर उन्होंने बार-एट -लॉ  की पढाई पूरी की।  बैरिस्टर  बन कर लन्दन से लौट आने के बाद राजाभाऊ ने अंतिम साँस तक बाबा साहब के मिशन के लिए काम किया जैसे कि उनके पिता की आज्ञा थी। तब बैरिस्टर बनाना बहुत बड़ी बात थी।  लोग चाहे जिस समाज के हो, उन्हें 'बैरिस्टर साहब' कह कर पुकारते थे।  दलित समाज में वे बाबासाहब डॉ आंबेडकर के बाद, दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने विदेश में जाकर बैरिस्टर होने की पढाई की थी।
Khobragade with Dr Ambedkar and other
colleagues of Independent labour Party
सामाजिक कार्यों में भागीदारी के कारण  सन 1952 में वे चंद्रपुर मुनिसिपल काउन्सिल के वाइस प्रेसिडेंस चुने गए थे।  सन 1954  में भंडारा से जब बाबा साहब ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था तब राजाभाऊ खोब्रागडे ने  कंधे से कंधा भिड़ा कर बाबा साहब का साथ दिया था।

बाबा साहब के द्वारा 14  अक्टू 1956 को नागपुर में ली गई ऐतिहासिक धम्म-दीक्षा के तुरंत बाद 16  अक्टू को चंद्रपुर में धम्मदीक्षा का एक बड़ा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ था जिस में करीब एक लाख लोगों ने बाबा साहब के नेतृत्व में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। चंद्रपुर में सम्पन्न इस दूसरे एतिहासिक धम्म-दीक्षा कार्यक्रम के सूत्रधार बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे ही थे ।
Dr Ambedkar, Gaikwad,Chitre,Khobragade during 
paying tribute on saint Eknath samadhi
बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे ने दलितों में शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया।  आपने चंद्रपुर और ब्रम्हपुरी में डॉ बाबासाहब आंबेडकर के नाम की एजुकेशन सोसायटी स्थापित की। दीक्षा भूमि नागपुर में आपने 'डॉ बाबा साहब आंबेडकर कालेज ऑफ़ आर्ट्स , कामर्स एंड साइंस' की स्थापना की।
शुरुआत में दलितों की राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जुला 1942 में 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' नामक एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना नागपुर अधिवेशन में की गई थी। पी एन राजभोज के बाद बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे इसके महासचिव बनाए गए थे। पाठक ध्यान रखे, यही शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन बाबा साहब के देहांत के बाद  'रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया ' की शक्ल में रूपांतरित किया गया।
राजाभाऊ खोब्रागडे ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया के लिए अपना अमूल्य योगदान दिया है, दलित समाज शायद ही उससे ऊऋण हो सके। बाबा साहब के देहांत के बाद वे पार्टी के महासचिव चुने गए थे।
राजा भाऊ खोब्रागडे ने दिस 1969  से लेकर अप्रैल 1972 की अवधि में राज्य सभा के डिप्टी स्पीकर का पद सुशोभित किया था। वे तीन बार सन 1958 ,1966  और 1978  में राज्य सभा के सदस्य चुने गए थे।
अप्रैल 23, 1984 को यह विभूति भी सदा सदा के लिए देश के दलितों को अलविदा कह गई। भारत सरकार ने ऐसी महान हस्ती के सम्मान में 11 नव 2009 को डाक टिकिट जारी कर देश के निर्माण में उनको याद किया ।

Wednesday, January 29, 2014

Pinki (Balaghat) Engagment


पिछली 24 जन को हम लोग बालाघाट(म प्र ) में थे।  वहाँ, मेरी भांजी पूर्वा (पिंकी) की सगाई का कार्यक्रम था। उसने अभी हाल-फ़िलहाल ही बी एच एम एस किया है। उसका रिश्ता जिस लड़के से तय हुआ है , वह किसी प्राइवेट कंसर्न में केमिस्ट है। शायद,  उसने केमिस्ट्री में इंजीनियरिंग किया है। ज्वॉब ठीक है।  लड़का सुन्दर है, परिवार भी समृद्ध और वेल एजुकेटेड है। 
हमारे समाज में आजकल लड़किया भी उच्च मेडिकल और तकनीकी शिक्षा ले रही हैं। हर माँ-बाप इस बात की चिंता किए  बगैर कि वह लड़का है या लड़की , बराबरी से पढ़ा रहा है। इस उच्च शिक्षा की दौड़ में बल्कि , देखा जाता है कि लड़के पीछे छूट रहे हैं।  शादी के समय कई जगह तो लड़की, लड़के के समकक्ष या उससे ज्यादा पढ़ी-लिखी होती है।

तय यह हुआ कि सगाई का कार्यक्रम घर में न करते हुए होटल में आयोजित किया जाए। यद्यपि, होटल या उसके लॉन का तगड़ा खर्च आता है मगर, आयोजन-कर्ता को सारे ताम-झाम से छुट्टी मिल जाती है। मेहमानों की तरह आप भी सज के चले जाओ और प्रोग्राम का आनंद उठाओ। होटल वाले सारी चीजे मुहैया करा देते हैं।

वैसे, खर्च में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं होती। सिलेक्टेड मेहमान होते हैं।  अगर घर में करते हैं तो फिर, मेहमानों में आप छटनी नहीं कर पाते। समाज और दीगर जान -पहचान के सगे-संबंधी तो है ही।  

पूरा कार्क्रम बहुत ही सुरुचि पूर्ण ढंग से सम्पन्न हुआ। शहर के बीच राजहंस होटल का मेन हॉल इसके लिए बुक था। होटल मालिक गुप्ताजी बार बार मेहमानों से पूछ रहे थे कि उन्हें किस चीज कि आवश्यकता हैं ?

Tuesday, January 28, 2014

सद्गुरु कबीर ज्ञानपीठ(Sadguru Kabir Gyanpeeth)

सद्गुरु कबीर ज्ञानपीठ; बैनगंगा संगम बपेरा (महा.)

मेरी तीन ख्वाहिशें रही है-
1 . कि मेरे गावं सालेबर्डी में बुद्ध विहार हो।
2 . कि बपेरा में गुरूजी ने जिस आश्रम की स्थापना की है, वह सामाजिक समरसता का केंद्र हो ।
3 . कि मेरे बड़े लड़के राहुल के नाम से स्कॉलरशिप हो जो किसी दलित समाज के बच्चे को आई आई टी या समकक्ष एकेडेमिक क्वॉलिफिकेशन प्राप्त करने स्पॉन्सर करे।
पहली ख्वाहिश ने तो मूर्त रूप ले लिया है। अब रही दूसरी ख्वाहिश की बात तो इस दिशा में प्रयास जारी है।

बात तब की है, जब मैं 4/ 5 वीं में पढ़ रहा होगा। बपेरा (महा.) के महंत बालकदास साहेब हमारे गावं सालेबर्डी आए हुए थे। बालकदास साहेब तब, उस क्षेत्र में एक बड़े संत के रूप में जाने जाते थे। कबीर पंथ के महंत कटंगी के गुरु ज्ञानदास साहेब के उत्तराधिकारी के तौर पर तब,  उनकी बड़ी चर्चा थी। 

हमारे यहाँ संत-महात्माओं को बड़े आदर की दृष्टी से देखा जाता है। समाज में संत-महात्माओं के प्रति आदर की यह भावना ही है कि लोग गुरु की शरण जाते हैं। और फिर, संतों की रहनी -गहनी भी तो आम लोगों से श्रेष्ठ होती है।  उनका चरित्र समाज में मिशाल का काम करता है। दूसरी ओर,  महंत भी इस प्रयास में होते हैं कि अधिक से अधिक लोग इस श्रेष्ठ समाज का अंग बने। इसके लिए वे लोगों की रूचि देख कर योग्य आम जन को शिष्य बनाते हैं।

लगता है, पिताजी को यह निर्णय लेना पड़ा कि उन्हें उस श्रेष्ठ समाज का हिस्सा होना चाहिए। उधर,  बालकदास साहेब की भी कृपा हुई। उन्होंने पिताजी से कहा कि 'काल करे सो आज कर , आज करे सो अब--।'  पिताजी ने घर पर आ कर अपने मन की बात बताई। माँ को भला इस में क्या आपत्ति हो सकती थी ? पिताजी ने हम दोनों भाइयों से पूछा था कि क्या हम उस में सम्मिलित हो रहे हैं ? हम ने अपनी स्वीकृति दी थी। मगर, मुझे ध्यान नहीं कि बहनों से भी पूछा गया हो ?

गुरूजी का मुझ पर काफी कर्ज था और मुझे हमेशा फ़िक्र रही थी कि मैं इस दिशा में कुछ करूँ। सन 1992 में प्रकाशित 'साक्षात्कार ' ग्रन्थ जो गुरूजी पर केंद्रित था, मेरी उसी कर्ज से उऋण होने की कोशिश थी।

गुरूजी मुझे बेहद चाहते थे। वे कभी मुझे अपना प्रमुख शिष्य बतलाते तो कभी कहते कि उनकी गद्दी का वारिश तो अमृत है, वह चाहे जो करे। मैं कबीर पंथ को लेकर प्राय: असमंजस में रहा हूँ। तमाम विरोधों के बावजूद कबीर पंथ जाने क्यों हिंदुइज्म से अलग स्थापित नहीं हो सका है। वह हिंदुइज्म का एक सम्प्रदाय बन कर रह गया है। अभिलाषदास साहेब जैसे विद्वान् लेखक और विचारक कबीर का अध्ययन उस तरह नहीं कर सके जैसे डॉ आंबेडकर ने बुद्ध का किया ?
खैर , कबीर के प्रति अपनी तमाम सदाशयता के बावजूद उसे आगे ले जाने मैं तैयार नहीं था जिस रूप में वह लोगों के बीच अवस्थित है। और फिर मैं, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की धम्म-देशना के विपरीत कैसे जा सकता था  ? मगर , दूसरी तरफ, गुरूजी की जो सामाजिक समरसता की भूमिका है , उसे आगे बढ़ाना उतना ही जरुरी मैं आज भी समझता हूँ। नि:संदेह गुरूजी सामाजिक समरसता के लिए जाने जाते थे। 

गुरूजी ने बपेरा(महा.) में एक आश्रम की स्थापना की थी।  बपेरा , गुरूजी का जन्म स्थान है।   गुरूजी का आश्रम बहुत ही सुन्दर जगह बना है।  यह बैनगंगा और बावनथड़ी दो नदियों के ठीक संगम तट पर है। आश्रम स्थल से यह संगम का विस्तृत नजारा बड़ा ही मोहक लगता है। आश्रम से बपेरा गावं करीब एक कि मी की दूरी पर है। खेतों के बाद आश्रम और आश्रम के बाद जंगल लगता है। गुरूजी ने आश्रम के लिए जिस स्थल का चुनाव किया है , वाकई अद्भुत है।

आश्रम का नाम 'सद्गुरु कबीर ज्ञानपीठ; बैनगंगा संगम बपेरा (रजि. क्र 127 /96 ) है। गुरूजी के समय से ही यहाँ साल में दो बार संत-समागम के कार्यक्रम होते हैं । पहला कार्यक्रम कार्तिक पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रांति को होता है। कार्यक्रम में संत, प्रवचनकार , कीर्तनकार और भजन मंडळी को आमंत्रित किया जाता है। कीर्तन /प्रवचन के बाद महाप्रसाद (भोजन दान ) होता है।
पिछली मर्तबा महंत कुमार साहेब (छति. ) की उपस्थिति में तय हुआ था कि आयोजन समिति में युवा साथी हो। महंत साखरे साहेब (कटंगी ) को साथ ले कर इस वर्ष मकर संक्रांति ( जन. 14 , 2014 ) का कार्यक्रम आयोजित किया गया। महंत सुबोध साहेब (लोधी खेड़ा) और धुन्दीलाल साहेब का सहयोग बराबर मिलता रहा है, इस बार भी मिला। पूरा कार्यक्रम बेहद उत्साहवर्धक रहा। 

Thursday, January 23, 2014

प्रत्युत्पन्नमति


प्रत्युत्पन्नमति

 एक श्रेष्ठि की कन्या का नाम कुण्डलकेसी  था । वह असाधारण रूपवती थी। एक दिन उसने अपने घर की खिड़की से देखा कि राजा के सिपाही किसी युवक को हथकड़ी लगा कर ले जा रहे थे। शायद , उसने कोई अपराध किया था।

कुंडलकेसी ने यह दृश्य देखा। वह उस युवक पर मोहित हो गई । उसने अपने पिता से कहा कि वह उस युवक से शादी करना चाहती है। उसने पिता से कहा की कि अपने प्रभाव का उपयोग कर वह उस युवक को छुड़ाए । पुत्री- प्रेम ने पिता को द्रवित किया। पिता ने किसी तरह उस युवक को छुड़वा कर पुत्री का उससे विवाह करा दिया।

कुछ दिन बीतने के अनन्तर वह युवक पत्नी को पूजा के बहाने एक पर्वत  पर ले गया। एक स्थान पर रुक कर एकाएक उसने पत्नी से कहा कि वह उसे यहाँ क़त्ल करने लाया है। पति की बात सुनकर कुंडलकेसी अवाक रह गई। युवक ने आगे कहा- मगर , वह चाहता है कि मरने के पहले वह खुद अपने सारे गहने उतार कर उसके हवाले कर दे ।

कुंडलकेसी सुंदरता के साथ प्रत्योत्पन्नमति मति भी थी। उसने कूटनीति का सहारा लिया। उसने मरने के पहले पति की प्रदक्षिणा करने की याचना की। पति मान गया। सिर चुकाए और हाथ जोड़े वह पति की प्रदक्षिणा करने लगी। दो चक्कर और लगाने थे कि उसने पति की कमर पर जोर से धक्का दिया और दूसरे  क्षण वह पर्वत की चोटी से नीचे गहरी खाई में था ।

Wednesday, January 22, 2014

सारिपुत्त (Sariputta)

 सारिपुत्त (ई पू  527 )

Photo :Threeroyalwarrior.tripod.com

जैसे कि पूर्व  में कहा गया है , सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन, भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्यों में प्रमुख शिष्य थे।  महा-मौद्गल्यायन जहाँ तपस्वी और तात्विक ज्ञाता थे वही, सारिपुत्त धम्म के विशेषज्ञ माने जाते थे।  सारिपुत्र ने ही अभिधम्म की परम्परा शुरू की थी।

सारिपुत्त का जन्म नालक ग्राम में हुआ था। उनके बचपन का नाम उपतिष्य था। उनके माता का नाम रूप सारी था। सारिपुत्त के पिता का नाम वगंत था जो गावं के प्रधान थे। उपतिष्य और कोलित के परिवार के बीच पिछले सात पीढ़ियों से मैत्री सम्बन्ध चल रहा था और इसलिए इन दोनों बाल-सखाओं के बीच मैत्री स्वाभाविक थी।

शुरु में उपतिष्य और कोलित दोनों मित्र संजय नामक परिव्राजक के आश्रम में ज्ञानार्जन के लिए गए थे। कुछ समय के बाद उनकी मुलाकात भगवान बुद्ध और उनके  भिक्षु संघ से होती है। दोनों मित्र भगवन बुद्ध की धम्म देशना से प्रभावित होते हैं और याचना करते हैं कि भगवन के हाथों उन्हें प्रव्रज्या और उपसंपदा मिले। भगवन ने उन्हें उपसंपदा प्रदान करते हैं। उधर, भगवान भी उपतिष्य और कोलित को अपने शिष्य के तौर पर  पाकर प्रसन्न होते हैं।  भगवान, भिक्षुओं को कहते हैं कि वे उनके प्रधान श्रावक होंगे। हम देखते है कि आगे सचमुच, उपतिष्य (सारिपुत्त) और कोलित (महा मोग्गलायन ) दाएं और बाएं हाथ के रूप में भगवान के साथ होते हैं ।

भगवन विशेष अवसरों पर वे दोनों को अपने साथ ले जाया करते थे। पहली बार जब भगवन कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के महल में पधारे  थे तब , उनसे मिलने जो दर्शनार्थी आए थे उन में यशोधरा नहीं थी। राजकुमारी को विश्वास था कि भगवन स्वयं उन्हें दर्शन देने आएँगे और हुआ भी यही । भगवन सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन के साथ यशोधरा के महल में गए। भगवन ने सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन को कहा था कि यशोधरा जैसे भी उनसे मिलना चाहे , उसे न रोके।

सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन भगवन के धम्म में पारंगत माने जाते थे ।  भगवन अपने शिष्यों को इनका उदहारण देते हुए कहते थे  - "भिक्षुओं,  सारिपुत्त-महा मोग्गलायन का अनुकरण करो। उनको सहयोग दो। सारिपुत्त जननी के समान है, तो मोग्गलायन नर्स (दाई ) के समान। वे चार आर्य सत्यों को ठीक-ठीक जानते और समझते हैं।"
भगवन के कथन का  समझ कर सारिपुत्त उपस्थित भिक्षुओं को उपदेश देने लगे।  सर्व प्रथम भगवन ने सारनाथ में जो धम्म देशना की थी , सारिपुत्र उसे ही सरल शब्दों में समझाते थे । वे बतलाते,  दुःख क्या है ? दुःख दूर होने का उपाय क्या है ? चार आर्य -सत्य और आर्य -अष्टांगिक मार्ग क्या है ?

एक अवसर पर भगवन ने कहा था -सारिपुत्त,  तुम ज्ञानी हो। तुम्हारा ज्ञान प्रकट और व्यापक है। जैसे चक्रवर्ती राजा का ज्येष्ठ पुत्र अपने  पिता का चक्र घुमाता है , तुमने ठीक ढंग से उसी तरह मेरा धम्म -चक्र घुमाया है। तुम मेरे धम्म-सेनापति हो। इस तरह भगवन ने अपने मुख से सारिपुत्र को धम्मसेनापति की पदवी से विभूषित किया था।
एक जगह भगवन ने सारिपुत्त का उदाहरण देकर एक परिपूर्ण शिष्य के लक्षण गिनाए थे। उन्होंने कहा था-  भिक्षुओं ! सारिपुत्त पंडित है। वह महा प्रज्ञावान है। तीक्ष्ण ज्ञान युक्त है, प्रज्ञा सम्पन्न है। भिक्षुओं ! सारिपुत्र की तरह प्रज्ञा शील और तीक्ष्ण बुद्धि युक्त बनो। भिक्षुओं, सारिपुत्त ने तथागत की तरह धर्म का सम्यक रूप से अनुप्रवर्तन किया है।
एक बार सारिपुत्त शय्या के अभाव में बाहर पेड़ के नीचे सारी रात बैठे रहे। तीसरे पहर के लगभग भगवन को लगा कि बाहर पेड़ के नीचे कोई है।

"यहाँ कौन है ?" -भगवन ने पूछा।
भगवन, मैं सारिपुत्त हूँ। "
"सारिपुत्त, तुम वहाँ क्यों बैठे हो ?"
"भगवन , अंदर कुटी में शय्या खाली नहीं थी, इस कारण मैं यहाँ पेड़ के नीचे सारी रात बैठा रहा।
सारिपुत्त की बात सुनकर भगवन को कष्ट हुआ।  भगवन ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा -
"भिक्षुओं ! प्रथम आसन , प्रथम जल , प्रथम परोसा किसके लिए है ?"
इस पर किसी ने क्षत्रिय/ ब्राह्मण कुल से प्रव्रजित के लिए तो किसी ने गृहपति कुल से प्रव्रजित होने के लिए तो किसी ने सूत्रधर /विनयधर /धर्मधर कुल के लिए कहा। तब, भगवन ने कहा- भिक्षुओं, भिक्षु संघ में जो पहले प्रविष्ट हुआ , फिर चाहे वह किसी कुल का हो , ज्येष्ठ हैं। जो पीछे प्रव्रजित हुआ , वह कनिष्ठ है। इसी नियम के अनुसार आदर सत्कार अभिवादन, प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा चाहिए।

सारिपुत्त के उपदेश भगवन के उपदेश की तरह होते थे।  यह इस उस घटना से स्पष्ट है जिस में भगवन अपने लिए एक स्थायी उपस्थाक की व्यवस्था के लिए भिक्षु संघ से कहते हैं। भगवन के यह कहने पर कि उन्हें स्थायी उपस्थाक की जरुरत है, सारिपुत्त कहते हैं -
 "भंते ! मैं आपकी सेवा करूँगा। "
"नहीं सारिपुत्त ! जिस दिशा में तुम जाते हो , फिर उस दिशा में मुझे जाने की आवश्यकता नहीं रहती। तुम्हारे उपदेश तथागत के उपदेश के समान होते हैं। इसलिए सारिपुत्त,  मुझे तुम्हारी सेवा नहीं चाहिए। " - भगवान ने सारिपुत्त से कहा था। विदित रहे , बाद में यह कार्य आनंद ने स्वीकारा था।

यद्यपि सारिपुत्त सभी भिक्षुओं से समान रूप से  व्यवहार करते थे।  किन्तु , आनंद और मोग्गलायन से वे कुछ विशेष लगाव रखते थे। मोग्गलायन उनके बचपन के साथी थे। जिस प्रकार से वे भगवन की सेवा करना चाहते थे, ठीक उसी प्रकार की सेवा आनंद कर रहे थे। इसी कारण से वे आनंद से विशेष लगाव रखते थे। आनंद भी उनका बड़ा आदर करते थे। यह इस प्रसंग से स्पष्ट है - एक बार भगवन ने आनंद से पूछा -
 "आनंद ! तुम्हें सारिपुत्त अच्छे लगते हैं ?"
" नि:संदेह भंते ! सारिपुत्त अच्छे लगते हैं।  आयुष्मान सारिपुत्त, पंडित है, महाप्रज्ञानवान है, अल्पेच्छुक है, निर्विकल्प है , प्रयत्नशील है।  भंते !  ऐसे सारिपुत्त, किसे अच्छे नहीं लगते ?" - आनंद का  जवाब था।
"ऐसे ही है,  आनंद ! जो तुमने कहा, मैं उसका समर्थन करता हूँ। " -भगवन के स्वीकार किया।

सारिपुत्त का परिनिर्वाण कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। उसके दो सप्ताह बाद ही महा-मोग्गलायन का देहांत हुआ।
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स्रोत -'बुद्ध और उनके समकालीन भिक्षु' लेखक: डॉ भदंत सावंगी मेधंक

Tuesday, January 21, 2014

आनंद ( Anand )

आनंद (ई पू  527 )
Photo:threeroyalwarrior.tripod.com

शिष्य हो तो आनंद जैसा, यह जगत-प्रसिद्द उक्ति बौद्ध-ग्रंथों से ली गई है। आनंद, भगवान बुद्ध के परम शिष्यों में एक थे। वे भगवान बुद्ध के  स्थायी उपस्थाक थे।

वह कौन-सा सेवा-भाव है जिसके लिए गुरु-शिष्य परम्परा में भगवान बुद्ध और आनंद का उल्लेख किया जाता है ? वह क्या खास बात है, जो आनंद को बुद्ध के सभी प्रिय शिष्यों की पंक्ति में अग्रणी स्थान पर ला खड़ा करती है ? आइए, ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तरों के लिए भगवान  बुद्ध के उस परम शिष्य आनंद, के बारे में जानने का प्रयास करें।

आनंद, रिश्ते में सिद्धार्थ गौतम के चचेरे भाई थे। उनके पिता का नाम अमितोदन था। अमितोदन , सिद्धार्थ गौतम  के पिता राजा शुद्धोदन के छोटे भाई थे। आनंद, भगवान से छोटे और महानाम से बड़े थे।  भगवान बुद्ध के बोधि प्राप्ति के दूसरे वर्ष आनंद की प्रव्रज्या हुई थी। उनके साथ भगवान बुद्ध के दूसरे शिष्य यथा भदिदय, भग्गू , अनिरुद्ध, देवदत्त, उपालि आदि  भी प्रव्रजित हुए थे।

भगवन बुद्ध के उपस्थाक (अटेन्डेन्ट ) समय-समय पर बदलते रहे थे।  इन में भिक्षु और श्रामनेर दोनों श्रेणी के उपस्थाक थे। जब भगवन 55 वर्ष के गए तो उन्होंने इच्छा जताई कि उनके साथ स्थायी उपस्थाक रहे। उनका कहना था कि कोई कोई उपस्थाक कुछ कहने पर कुछ और समझ लेते हैं। भगवन की इच्छा जान कर सभी प्रधान शिष्यों ने अपने को भगवन की सेवा में प्रस्तुत किया।  किन्तु , भगवान मौन बैठे रहे।  इधर, आनंद अकेले ऐसे थे जिन्होंने अपनी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं की थी ।  जब उनसे पूछा गया कि वे अपने आप को सेवा के लिए क्यों प्रस्तुत नहीं करते तो उनका उत्तर था कि भगवान को उचित लगेगा तो वे स्वयं आज्ञा करेंगे।

भगवन के ध्यान में जब यह बात लाई गई तो उन्होंने आनंद को अपना स्थायी उपस्थाक बन जाने की अनुमति दी। इस पर आनंद ने भगवान के सामने आठ शर्तें रखी- 1 . यह कि भगवान अपने भिक्षा-पात्र में मिला भोजन या कपडे आनन्द को नहीं देंगे। 2 . भगवान, आनंद को अपनी कुटी में सोने के लिए नहीं कहेंगे। 3 .  स्वीकार किए गए निमंत्रण में भगवान, आनंद को साथ चलने का आग्रह नहीं करेंगे। 4 . भगवान की ओर से अगर कोई निमंत्रण आनंद स्वीकार कर लेते हैं तो उसे अस्वीकार वे नहीं करेंगे। 5 . दूर से आए  लोगों को  भगवान के दर्शन कराने की आनंद को अनुमति होगी । 6 . आनंद जब चाहे अपनी परेशानी को भगवान के सामने रख सकेंगे । 7 . यदि  आनंद की अनुपस्थिति में कोई उपदेश दिया हो तो आनंद के पूछे जाने पर  भगवान को पुन: उसे दोहराने में दिक्कत नहीं होगी । 8 . --------------------------- भगवान ने आनंद की सारी शर्तें स्वीकार कर ली।

तब से, अगले 25 वर्षों तक आनंद भगवान् की सेवा में छाया की तरह रहे। भगवान की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में आनंद उनके सारे काम स्वयं अपने हाथ से करते थे। भगवान को कहीं जाना होता , आनंद उनके साथ जाते। भगवान की कुटी में झाड़ू लगाते। वे दिन के समय  हमेशा भगवान के आस-पास रहते ताकि  भगवान की हर छोटी-मोटी आवश्यकता पूरी सके। रात के समय एक हाथ में लाठी,  दूसरे हाथ में लैम्प लेकर गंधकुटी के इर्ड-गिर्द घूमते ताकि भगवान को जब भी उनकी जरुरत पड़े ,  पूरी कर सके। साथ ही किसी बाहरी बाधा से भगवान की नींद में कोई विघ्न उपस्थित न हो।

आनंद अपनी जिम्मेदारी के कार्य निभाने में बड़े ही कुशल थे। भगवान को जब भी कोई कार्य कराना होता तो वे आनंद को ही कहते । आनंद वे सारी खबरें सुनाते जिन में भगवान को जरा भी दिलचस्पी होती। एक बार देवदत्त के कहने पर अजातशत्रु के हाथीवान ने नालागिरी हाथी को शराब पिला कर जिस रास्ते से भगवन आ रहे थे , उसी रास्ते पर छोड़ दिया था ताकि वह भगवान को मार डाले। भगवान की जान को खतरा देख कर आनंद ने सामने आ कर पागल मद मस्त हाथी को अपने बुद्धि-कौशल से भगाया था।

आनंद बहुत ही मिलनसार प्रकृति के थे। यदि किसी उपासक /उपासिका को कोई समस्या होती तो वे आनंद से ही मिल कर उसका निदान करते। उनके साथी अक्सर विविध समस्याओं को सुलझाने के लिए उनसे सलाह लेते। कभी-कभी भिक्षु,  भगवान से संक्षिप्त उपदेश सुन कर उसी को विस्तार से सुनने के लिए आनंद से पूछते थे।  क्योंकि , धर्म को सरल तरीके से समझाने में आनंद पटु थे। कहा जाता है कि कभी-कभी भगवान जान-बुझ कर संक्षिप्त उपदेश देते थे ताकि लोग उसकी व्याख्या आनंद से सुने।

आनंद अकसर भगवान से उपदेश सुनते और फिर वही उपदेश भिक्षुओं को सुनाते।  उन्होंने आठ शर्ते भगवान से स्वीकृत करवाई थी, आनंद उसका पूरा पूरा लाभ उठाते थे।  वे भगवान से कभी भी कोई भी प्रश्न पूछ सकते थे। उनकी  बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। वे भगवन की हर क्रिया-कलाप पर बड़ी सावधानी से ध्यान देते थे। यदि शास्ता अनायास मुस्कराए भी, तो उन्हें आनंद को इसका कारण बताना पड़ता था।

आनंद, भगवान से प्राय: धर्म की चर्चा करते थे। इसके साथ- साथ वे संघ और लोकोपकार पर भी चर्चा करते थे। कभी- कभी दूसरे के मुंह से सुना वार्तालाप भी वे भगवान को सुनाते और भगवान से उसकी व्याख्या सुनते थे। जिस बात को वे स्वयं नहीं जानते, उसे भगवान से बिना पूछे नहीं बताते।

भिक्षुणी संघ की स्थापना में आनंद का विशेष हाथ था। इसके लिए उन्होंने भगवान को एक तरह से मजबूर किया था। कपिलवस्तु में जब महा प्रजापति गौतमी ने स्त्रियों के लिए प्रव्रजित होने की अनुमति चाही तो भगवान ने इसे अस्वीकार कर दिया। सैकड़ों शाक्य स्त्रियों को ले कर उसने वैशाली तक भगवान का पीछा किया। रोती हुई ,उदास, सूजे पैरों वाली स्त्रियों को जब आनंद ने देखा तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना स्वीकार करने की याचना की। आनंद ने तीन बार आग्रह किया।  किन्तु , भगवान ने तीनों बार अस्वीकार किया। तब, आनंद ने दूसरे प्रकार से भगवान को मनाने की सोची। उन्होंने भगवान से कहा -
"भंते ! घर से  बेघर प्रव्रजित स्त्रियां क्या स्रोतापति फल,सकृतगामी फल,   अनागामी फल और अर्हत्व का साक्षात्कार कर सकती है ?"
"साक्षात्कार कर सकती है, आनंद । - भगवान ने कहा।
"भंते ! साक्षात्कार कर सकती है अर्थात वे प्रव्रजित हो सकती हैं ? भगवान ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रजित होने की अनुज्ञा मिले। " -आनंद से सहमत होते हुए भगवन ने आठ शर्तों के साथ महिलाओं को संघ में प्रव्रजित होने की अनुज्ञा दे दी।  नि:संदेह आनंद बीच में न पड़ते तो स्त्रियों को धम्म में प्रव्रजित  होने अनुज्ञा नहीं मिलती ।

सम्भवत: इसी लिए भिक्षुणियां, आनंद का बहुत सम्मान करती थी। आनंद को कोई कुछ कहे या उनका अपमान करे, भिक्षुणियां तुरंत आनंद का पक्ष लेती। आनंद गृहणियों के भी बहुत चहेते थे। जब वे उपदेश देने लगते तो वे उन्हें घेर लेती। धर्म के सम्बन्ध में उनसे नाना प्रकार से प्रश्न पूछती।

एक बार आनंद, जब कौशम्बी गए तो राजा के अंत:पुर की स्त्रियां उनके  पास गई और उनका उपदेश सुना। वे उनसे इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने आनंद को पांच सौ चीवर दिए। इसी तरह की घटना कौशल नरेश प्रसेनजित के राज दरबार की है। राजा प्रसेनजित ने भगवन से प्रार्थना की कि वे पांच सौ भिक्षुओं के साथ रोज राजमहल पधारा करें।  भगवान ने कहा कि उनके लिए रोज रोज एक ही स्थान पर उपदेश देने जाना असम्भव है। तब, उनसे किसी योग्य भिक्षु को ही भेजने की प्रार्थना की। जब यह खबर राजमहल के अंत:पुर पहुंची तो वहाँ से इसके लिए आनंद को भेजने की गुजारिश की गई ।

मगर, गृहणियों और भिक्षुणियों का यह चहेतापन आनंद के गले भी पड़ा। एक गृहणी की कन्या आनंद को देख कर मोहित हो गई। यह जानते हुए भी कि आनंद प्रव्रजित है, उसने अपनी माता से कहा कि वह आनंद से प्रेम करती है और उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकती। कन्या की माता अपनी पुत्री का यह हठ देख कर भौचक रह जाती है। अंतत: मामला भगवन बुद्ध के पास जाता है। भगवान, कन्या को बुला कर उसे शांत कराते हैं। कन्या, भगवान के उपदेश से प्रभावित हो भिक्षुणी बन जाती है। 

आनंद और सारिपुत्र के बीच प्रगाढ़ मैत्री थी। चूँकि सारिपुत्र भगवन के प्रधान शिष्य थे , इसलिए आनंद सारिपुत्र का बहुत सम्मान करते थे। उधर, आनंद के भगवन की सेवा में रहने से सारिपुत्र भी आनंद का उतना ही सम्मान करते थे। साधारण लोगों के प्रति और विशेष कर किसी कठिनाई में पड़े व्यक्ति के प्रति आनंद बेहद सहानुभूति रखते थे। बौद्ध ग्रंथों में भगवन के साथ आनंद ने जो बीमार भिक्षु की सेवा की थी, वह प्रेरणादायी उदाहरण जग जाहिर है।
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आनंद को एक और बात के लिए जाना जाता है और वह है उनकी अदभुत स्मरण शक्ति।   समय-समय पर भगवान बुद्ध के विभिन्न अवसरों पर दिए गए प्रवचनों को आनंद जस का तस याद कर लेते थे।  इसलिए उन्हें धम्मभांडागरिक की पदवी से विभूषित किया गया था । याद रहे, बौद्ध धम्म ग्रंथों के सुत्तपिटक के प्रथम पांच निकायों में प्रत्येक सुत्त  'एवं मे सुतं (ऐसा मैंने सुना ) से आरम्भ होता है। यहाँ 'मैंने ' शब्द आनंद के लिए आता  है। पाली धम्म ग्रंथों से पता चलता है कि आनंद जल्दी-जल्दी बोलने में भी माहिर थे।

एक बार भिक्षुओं की सभा में भगवन ने अपने मुख से स्वयं आनंद में पांच विशेष गुण बतलाए थे । उन्होंने कहा था कि आनंद प्रत्युत्पन्न-मति है , वह अच्छे व्यवहार वाला है। वह धारणा शक्ति वाला और दृढ़ निश्चयी है। एक और अवसर पर भगवन ने कहा था कि आनंद में एक अद्भुत विशेषता है और वह यह कि जो भी आनंद के दर्शनार्थ आता है , वह उन के उपदेश से संतुष्ट हो जाता है । कितनी ही देर उनका  उपदेश सुने, उसकी इच्छा पूरी नहीं होती। 

जब भगवन को लगा कि उनके परिनिर्वाण का समय निकट है तो उन्होंने आनंद को बुला कर इससे अवगत कराया। आनंद को इससे बड़ा आघात लगा। आनंद के दुखी: होने पर  उन्हें पास बुला कर भगवन ने कहा - "आनंद ! क्या मैंने पहले नहीं कहा था कि सभी प्रिय और अप्रिय का वियोग अवश्यसम्भावी है ?"
"हाँ भंते ! भगवन ने ऐसा ही कहा था। " - अश्रुपूर्ण नेत्रों से भगवन की ओर देख कर आनंद ने हामी भरी ।  

भगवन के परिनिर्वाण के बाद सम्पन्न प्रथम संगति में संगति का अध्यक्ष आनंद को ही चुना गया था। इस संगति  में महाकश्यप ने आनंद से धम्म के बारे में और उपालि से विनय के बारे में प्रश्न पूछे थे।

बौद्ध धम्म ग्रंथों में आनंद के लम्बी आयु जीने का जिक्र है। उनकी आयु 120 वर्ष बतलायी जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने अपने अंतिम समय पर वैशाली से बहती रोहणी नदी में जल समाधि ली थी।
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स्रोत -'बुद्ध और उनके समकालीन भिक्षु' लेखक: डॉ भदंत सावंगी मेधंकर

Sunday, January 19, 2014

महा मोग्गलायन (Maha Mogglayan)

Source-Bauddhacharya Shanti Svaroop Bauddh

  महा मोग्गलायन (ई पू 527 )

भगवन बुद्ध के 80 प्रधान शिष्यों में सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन का स्थान अग्रणी था।  विश्व प्रसिद्द साँची के स्तूप में सारिपुत्त और  महा मोग्गलायन की अस्थियां आज भी रखी है, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध जगत की तमाम हस्तियां एवं अन्य धम्मानुयायी इकट्ठे होते हैं और भगवन बुद्ध के इन दोनों महान शिष्यों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। आइए , इन महापुरुषों के बारे में कुछ जानने का प्रयास करे।

महा-मोग्गलायन के बारे में सारिपुत्त के बनिस्पत विस्तृत जानकारी अनुपलब्ध है।  महा-मोग्गलायन का जन्म राजगृह के समीप कोलित गावं में हुआ था। शायद, इसलिए उन्हें कोलित के नाम से भी जाना जाता है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जिस दिन सारिपुत्त का जन्म हुआ था, ठीक उसी दिन महा-मोग्गलायन का जन्म हुआ।

सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन भगवान बुद्ध के दो ऐसे वरिष्ठ शिष्य थे जो किसी भी प्रश्न का उत्तर क्रमश: और विस्तृत रूप से दे सकते थे। दोनों को तात्विक ज्ञान में महारत हासिल थी।

महा-मोग्गलायन और सारिपुत्त के बीच असीम और स्वाभाविक प्रेम था। दोनों मित्रों में अकसर किसी गम्भीर विषय पर चर्चा होती रहती थी। दोनों के ह्रदय में भगवन के प्रति असीमित प्रेम और भक्ति थी। जब वे भगवान से कहीं दूर होते तो वे भगवान से हुई बातें और चर्चा के संबंध में एक दूसरे से कहते। यात्रा के समय दोनों ही अन्य भिक्षुओं का नेतृत्व करते थे। भिक्षुओं को दान देने वाले गृहपति दोनों को ही शामिल करने के लिए हमेशा आतुर रहते थे।
 महा-मोग्गलायन को कई सिद्धियाँ प्राप्त थी। यह महा-मोग्गलायन ही थे जिन्होंने भगवान  की अनुज्ञा लेकर   अपने ऋद्धि बल से नदोपनंद नाग का पराभव किया था।

कहा जाता है कि महा-मोग्गलायन के शरीर का वर्ण नीला था और यही कारण है कि श्रीलंका जैसे बौद्ध देश में उनकी प्रतिमा नीले रंग की बनाई जाती है।

महा-मोग्गलायन का देहांत कार्तिक अमावस को हुआ था।  उनकी हत्या निगंठों ने की थी।ज्ञान और चर्चा में निरंतर हारने के कारण निगंठ,  महा-मोग्गलायन से खफा रहते थे। उन्होंने पहले भी कई बार उनकी हत्या का प्रयास किया था।
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स्रोत -'बुद्ध और उनके समकालीन भिक्षु' लेखक: डॉ भदंत सावंगी मेधंकर

Friday, January 17, 2014

Anihilation of caste

Anihilation of caste

पिछले वर्ष, ताई (छोटी बिटिया) की शादी के सिलसिले में मैं वर परिवार की सरनेम /जाति भी जानने की कोशिश करता था। www.shadi.com  जैसे साईट्स से बेटे /बिटिया के लिए आप जब वधु /वर  खोजते हैं तब सामने वाले पक्ष के प्रोफ़ाइल में दिए गए डिटेल्स से एक्जेक्ट यह पता नहीं चलता कि जो आपकी रिक़्वायर्मेन्ट है वह फुलफिल हो रहा है या नहीं।

 हम चाहते थे कि लड़का सजातीय बुद्धिस्ट हो।  मगर, अधिकांश प्रोफ़ाइल के जाति/सरनेम वाले कॉलम के अनफिल्ड रहने से मुझे परेशानी हो रही थी।

वर पक्ष वाले पूछते-
"अंकल, हम बुद्धिस्ट हैं , क्या इतना पर्याप्त  नहीं हैं ? आप सरनेम/जाति क्यों जानना चाहते हैं ?" 
मैं सकपका जाता।  थोडा सम्भल कर कहता -
" देखिए, मैं सरनेम या जाति इसलिए जानना चाहता हूँ कि यह तय कर सकूं कि जिस घर/परिवार में मेरी बिटिया जा रही है उस घर/परिवार के संस्कार वैसे या उससे मिलते-जुलते हैं या नहीं, जहाँ वह पैदा हुई है, पली-बढ़ी है ? आप जानते हैं कि बुद्धिस्ट होने के बावजूद लोगों के धार्मिक-सामाजिक संस्कारों में बड़ी भारी भिन्नता होती हैं। अगर मेरे पास च्वॉइस है तो मैं चाहूंगा कि मेरी बिटिया उस परिवार में जाए जहाँ के धार्मिक-सामाजिक संस्कारों से एकाकार होने में उसे ज्यादा परेशानी न हो।"
अब निरुत्तर हो जाने की बारी सामने वाले की होती। वे केटेगोरिकली स्पष्ट करते कि किस सरनेम /जाति को वे बिलॉन्ग करते हैं।

 हिंदुओं की जाति-व्यवस्था हमारे सामाजिक ताने-बाने पर इतना बड़ा अभिशाप है कि यह देश सिर्फ इसी के कारण सदियों तक गुलाम रहा। मगर, इस सच्चाई के बावजूद तब भी जाति -व्यवस्था के ठेकेदार इस बुराई को न सिर्फ ज़िंदा रखे हुए हैं वरन वे इसके समर्थन में बेहूदे तर्क देने में नहीं हिचकते।

डॉ आंबेडकर ने जब इस समस्या को हिन्दू नजरिए से देखा तो इसके खात्मे के लिए उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह को सबसे कारगर कदम बतलाया था। उन्होंने दलित जातियों सहित सभी को सुझाव दिया कि अगर ऊँच-नीच की जाति-पांति ख़त्म करना है तो समाज में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना होगा।

 मगर , डॉ आंबेडकर को हिंदुओं ने गंभीरता से लिया ही कब है ? हिन्दू  तो ठीक है , क्या दलित जातियों ने डॉ आंबेडकर की इस सलाह को सिरियसली लिया ? मुझे इस बात का एहसास तब हुआ जब मैं 3 जन 2014 को जबलपुर में सम्पन्न अपने साढू भाई डब्ल्यू  आर डाहटे के सुपुत्र डाली की शादी का नज़ारा अपनी आँखों से देख रहा था।

यह अन्तर्जातीय विवाह था। मोहल्ले के ही भट्ट (ब्राह्मण) परिवार की लड़की थी।

शादी में शरीक होने मुझे थोड़ी हिचकिचाहट-सी हो रही थी।  क्योंकि, इस तरह के शादी में शरीक होने पर समाज के द्वारा बहिष्कृत किए जाने के  हम भुक्त-भोगी थे। फिर भी, समाज में तेजी से परिवर्तन हो रहे थे और मैं इस परिवर्तन का संवाहक था ।  मेरा मन -मस्तिष्क जड़ और सड़ रही मान्यताओं को कहीं दूर पीछे छोड़ रहा था।

दुल्हन का घर दुल्हे से एक मकान के अंतर पर था।  मगर, किसी तरह का कोई तम या  विरोध  नजर नहीं आ रहा था।  दुल्हन का घर खुब सजा था। रंग -बिरंगी रोशनाई से दोनों मकान सराबोर थे।  शादी और रिसेप्शन के लिए कृष्णा लॉज बुक था। जैसे ही बारात प्रवेश द्वार पर पहुंची , दुल्हन पक्ष के बड़े बुजुर्ग हाथों में फूलों की माला लिए हम वर पक्ष के बारातियों का बड़ी प्रसन्नता से स्वागत कर रहे थे।

अंदर शादी / रिसेप्शन लॉन खूबसूरत तरीके से सजाया गया था। मेन स्टेज के बाई ओर शहनाई वादक 'मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया, सज के आयेंगे दुल्हे राजा-----'  धुन पर जहाँ वधु पक्ष के दिलों की धड़कन को शब्द दे रहे थे वही करीने से सजी मेजे वर पक्ष के बारातियों को जैसे बैठने की गुजारिश कर रही थी ।

Thursday, January 16, 2014

एस एन शिवतारकर (Sitaram N Shivtarkar)

सीताराम एन शिवतारकर (1909  -1966 )

दलित अस्मिता के मुद्दे पर जब डॉ आंबेडकर अपनी लड़ाई लड़ रहे थे, तब लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी कंधे से कन्धा मिला कर डॉ आंबेडकर के साथ चले थे। इन में कई ऐसे थे जो उनकी एक आवाज पर मर मिटने को तैयार थे मगर, धर्मांतरण के मुद्दे पर वे अलग राय रखते थे। सन 1935 में येवला में डॉ आंबेडकर की यह गर्जना कि वे हिन्दू धर्म में पैदा हुए किन्तु , एक हिन्दू होकर मरेंगे नहीं; पर उनके कई साथियों की त्यौरियां चढ़ गई थी। चाहे शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उनके अपने साथी हो या फिर,  देश की दलित राजनीति में अलग-अलग मंचों पर काम रहे कांग्रेस व दीगर पार्टियों के नेता।

गांधीजी और कांग्रेस की अछूतों के प्रति द्वेष-पूर्ण नीति से यद्यपि डॉ आंबेडकर ख़फ़ा थे।  फिर भी जहाँ तक राष्ट्रहित की बात है, उन्होंने एक सीमा रेखा खीच दी थी। वे उससे कोई समझौता नहीं  चाहते थे। चाहे पाकिस्तान का मुद्दा हो या उनके अपने धर्मान्तरण का, राष्ट्रहित को उन्होंने पहले तरजीह दी।

डॉ आंबेडकर की यह सीमा  नेहरु और गांधीजी तो जानते थे किन्तु ,  दलित नेता इतनी बड़ी रिस्क लेने को तैयार नहीं थे । दूसरे,  दलित नेता सामाजिक  गुलामी से छुटकारा चाहते थे। सब चाहते थे कि उनके साथ न्याय हो और मानवता का व्यवहार  किया जाए।  मगर, इसकी कीमत चुकाने को वे तैयार नहीं थे ।

आज, जब हम उन परिस्थितियों का जिक्र करते है, आंकलन करते हैं तो चाह कर भी उन हस्तियों को नज़रअंदाज नहीं कर पाते जिनके योगदान के बिना हम जहाँ आज खड़े हैं शायद, नहीं पहुँच पाते । दलित आंदोलन से जुड़े सीताराम एन  शिवतारकर उन में एक है। 

सीताराम एन शिवतारकर का जन्म कमाथीपूरा (मुम्बई) में हुआ था।  वे दलित चमार परिवार में पैदा हुए थे। इनके पिताजी नामदेवरॉव शिवतारकर शिक्षक थे। सीताराम एन शिवतारकर की पत्नी का नाम विट्टा बाई था। उनकी शादी सन 1913 में हुई थी।

सीताराम शिवतारकर परेल मुम्बई के एक मराठी स्कूल में शिक्षक थे।  वे सन 1926 में पदोन्नत हो कर हेड मास्टर बन गए थे। बाद के दिनों में वे पदोन्नत हो कर एजुकेशनल सुपरवाइजर बन गए थे। वे सन 1949 में सेवानिवृत हुए थे।
शिवतारकर जी शुरू से ही सामाजिक सुधार के क्षेत्र में प्रवृत हुए थे। वे सन 1914 से ही वे डॉ आंबेडकर के सम्पर्क में आ चुके थे। जब डॉ आंबेडकर अपने उच्च अध्ययन के सिलसिले में इंग्लैण्ड में थे तब, शिवतारकर जी और डी डी  घोलप जी मूकनायक का प्रबंध सम्भल रहे थे जिसे डॉ आंबेडकर ने शुरू किया था।

बहिष्कृत हितकारिणी सभा जिसकी स्थापना 20 जुला 1924 में बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने की थी, एस एन शिवतारकर उसके सेक्रेटरी थे। महाड में 20 दिस 1927 को जो डिप्रेस्ड क्लासेस की कॉन्फ्रेंस  हुई थी, शिवतारकर की उस में प्रमुख भूमिका थी।

डिप्रेस्ड क्लासेस एजुकेशन सोसायटी के , जिसकी स्थापना डॉ आंबेडकर ने 14 जून 1928 को की थी, सेकेटरी और खजांजी शिवतारकर जी ही थे। नासिक में  2 मार्च 1930 को कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह के लॉन्ग मार्च में शिवतारकर ने शिरकत की थी।

इसी तरह लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के समय शिवतारकर ने डॉ आंबेडकर का पुरे जोश से समर्थन किया था। गांधीजी और डॉ आंबेडकर के बीच हुए पूना-पेक्ट में वे एक प्रमुख हस्ताक्षर कर्ता थे।

अकोला में 6 -7 मई 1933  को सी पी एंड बरार स्तर पर जो डिप्रेस्ड क्लासेस की कांफ्रेन्स हुई थी,  की अध्यक्षता शिवतारकर ने की थी। इसी तरह 9 मई 1933 को बरार के कापस टैनी में हुई कॉन्फ्रेंस की भी उन्होंने अध्यक्षता की थी। इन सम्मेलनों में शिवतारकर ने डॉ आंबेडकर का भारी समर्थन करने के लिए समाज से अपील की थी।

दलित आंदोलन में प्रमुख भूमिका निबाहने के बावजूद सीताराम एन शिवतारकर धर्मान्तरण के प्रश्न पर डॉ आंबेडकर से अलग मत रखते थे। धर्मान्तरण के मुद्दे पर हिन्दू सुधारवादी संगठन आर्य समाज से उनकी नजदीकियां थी। वे बाद के दिनों में कांग्रेस में चले गए।

सन 1952 के आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के टिकिट पर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के आर डी भंडारे के
विरुद्ध चुनाव जीता था। सन 1952  में ही सीताराम एन शिवतारकर ने रोहिदास समाज पंचायत संघ की स्थापना की थी।  वे सन 1963 तक इसके अध्यक्ष रहे थे।

उनका देहांत 29 मार्च 1966 को 75 वर्ष की उम्र में हुआ था।