Tuesday, January 21, 2014

आनंद ( Anand )

आनंद (ई पू  527 )
Photo:threeroyalwarrior.tripod.com

शिष्य हो तो आनंद जैसा, यह जगत-प्रसिद्द उक्ति बौद्ध-ग्रंथों से ली गई है। आनंद, भगवान बुद्ध के परम शिष्यों में एक थे। वे भगवान बुद्ध के  स्थायी उपस्थाक थे।

वह कौन-सा सेवा-भाव है जिसके लिए गुरु-शिष्य परम्परा में भगवान बुद्ध और आनंद का उल्लेख किया जाता है ? वह क्या खास बात है, जो आनंद को बुद्ध के सभी प्रिय शिष्यों की पंक्ति में अग्रणी स्थान पर ला खड़ा करती है ? आइए, ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तरों के लिए भगवान  बुद्ध के उस परम शिष्य आनंद, के बारे में जानने का प्रयास करें।

आनंद, रिश्ते में सिद्धार्थ गौतम के चचेरे भाई थे। उनके पिता का नाम अमितोदन था। अमितोदन , सिद्धार्थ गौतम  के पिता राजा शुद्धोदन के छोटे भाई थे। आनंद, भगवान से छोटे और महानाम से बड़े थे।  भगवान बुद्ध के बोधि प्राप्ति के दूसरे वर्ष आनंद की प्रव्रज्या हुई थी। उनके साथ भगवान बुद्ध के दूसरे शिष्य यथा भदिदय, भग्गू , अनिरुद्ध, देवदत्त, उपालि आदि  भी प्रव्रजित हुए थे।

भगवन बुद्ध के उपस्थाक (अटेन्डेन्ट ) समय-समय पर बदलते रहे थे।  इन में भिक्षु और श्रामनेर दोनों श्रेणी के उपस्थाक थे। जब भगवन 55 वर्ष के गए तो उन्होंने इच्छा जताई कि उनके साथ स्थायी उपस्थाक रहे। उनका कहना था कि कोई कोई उपस्थाक कुछ कहने पर कुछ और समझ लेते हैं। भगवन की इच्छा जान कर सभी प्रधान शिष्यों ने अपने को भगवन की सेवा में प्रस्तुत किया।  किन्तु , भगवान मौन बैठे रहे।  इधर, आनंद अकेले ऐसे थे जिन्होंने अपनी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं की थी ।  जब उनसे पूछा गया कि वे अपने आप को सेवा के लिए क्यों प्रस्तुत नहीं करते तो उनका उत्तर था कि भगवान को उचित लगेगा तो वे स्वयं आज्ञा करेंगे।

भगवन के ध्यान में जब यह बात लाई गई तो उन्होंने आनंद को अपना स्थायी उपस्थाक बन जाने की अनुमति दी। इस पर आनंद ने भगवान के सामने आठ शर्तें रखी- 1 . यह कि भगवान अपने भिक्षा-पात्र में मिला भोजन या कपडे आनन्द को नहीं देंगे। 2 . भगवान, आनंद को अपनी कुटी में सोने के लिए नहीं कहेंगे। 3 .  स्वीकार किए गए निमंत्रण में भगवान, आनंद को साथ चलने का आग्रह नहीं करेंगे। 4 . भगवान की ओर से अगर कोई निमंत्रण आनंद स्वीकार कर लेते हैं तो उसे अस्वीकार वे नहीं करेंगे। 5 . दूर से आए  लोगों को  भगवान के दर्शन कराने की आनंद को अनुमति होगी । 6 . आनंद जब चाहे अपनी परेशानी को भगवान के सामने रख सकेंगे । 7 . यदि  आनंद की अनुपस्थिति में कोई उपदेश दिया हो तो आनंद के पूछे जाने पर  भगवान को पुन: उसे दोहराने में दिक्कत नहीं होगी । 8 . --------------------------- भगवान ने आनंद की सारी शर्तें स्वीकार कर ली।

तब से, अगले 25 वर्षों तक आनंद भगवान् की सेवा में छाया की तरह रहे। भगवान की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में आनंद उनके सारे काम स्वयं अपने हाथ से करते थे। भगवान को कहीं जाना होता , आनंद उनके साथ जाते। भगवान की कुटी में झाड़ू लगाते। वे दिन के समय  हमेशा भगवान के आस-पास रहते ताकि  भगवान की हर छोटी-मोटी आवश्यकता पूरी सके। रात के समय एक हाथ में लाठी,  दूसरे हाथ में लैम्प लेकर गंधकुटी के इर्ड-गिर्द घूमते ताकि भगवान को जब भी उनकी जरुरत पड़े ,  पूरी कर सके। साथ ही किसी बाहरी बाधा से भगवान की नींद में कोई विघ्न उपस्थित न हो।

आनंद अपनी जिम्मेदारी के कार्य निभाने में बड़े ही कुशल थे। भगवान को जब भी कोई कार्य कराना होता तो वे आनंद को ही कहते । आनंद वे सारी खबरें सुनाते जिन में भगवान को जरा भी दिलचस्पी होती। एक बार देवदत्त के कहने पर अजातशत्रु के हाथीवान ने नालागिरी हाथी को शराब पिला कर जिस रास्ते से भगवन आ रहे थे , उसी रास्ते पर छोड़ दिया था ताकि वह भगवान को मार डाले। भगवान की जान को खतरा देख कर आनंद ने सामने आ कर पागल मद मस्त हाथी को अपने बुद्धि-कौशल से भगाया था।

आनंद बहुत ही मिलनसार प्रकृति के थे। यदि किसी उपासक /उपासिका को कोई समस्या होती तो वे आनंद से ही मिल कर उसका निदान करते। उनके साथी अक्सर विविध समस्याओं को सुलझाने के लिए उनसे सलाह लेते। कभी-कभी भिक्षु,  भगवान से संक्षिप्त उपदेश सुन कर उसी को विस्तार से सुनने के लिए आनंद से पूछते थे।  क्योंकि , धर्म को सरल तरीके से समझाने में आनंद पटु थे। कहा जाता है कि कभी-कभी भगवान जान-बुझ कर संक्षिप्त उपदेश देते थे ताकि लोग उसकी व्याख्या आनंद से सुने।

आनंद अकसर भगवान से उपदेश सुनते और फिर वही उपदेश भिक्षुओं को सुनाते।  उन्होंने आठ शर्ते भगवान से स्वीकृत करवाई थी, आनंद उसका पूरा पूरा लाभ उठाते थे।  वे भगवान से कभी भी कोई भी प्रश्न पूछ सकते थे। उनकी  बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। वे भगवन की हर क्रिया-कलाप पर बड़ी सावधानी से ध्यान देते थे। यदि शास्ता अनायास मुस्कराए भी, तो उन्हें आनंद को इसका कारण बताना पड़ता था।

आनंद, भगवान से प्राय: धर्म की चर्चा करते थे। इसके साथ- साथ वे संघ और लोकोपकार पर भी चर्चा करते थे। कभी- कभी दूसरे के मुंह से सुना वार्तालाप भी वे भगवान को सुनाते और भगवान से उसकी व्याख्या सुनते थे। जिस बात को वे स्वयं नहीं जानते, उसे भगवान से बिना पूछे नहीं बताते।

भिक्षुणी संघ की स्थापना में आनंद का विशेष हाथ था। इसके लिए उन्होंने भगवान को एक तरह से मजबूर किया था। कपिलवस्तु में जब महा प्रजापति गौतमी ने स्त्रियों के लिए प्रव्रजित होने की अनुमति चाही तो भगवान ने इसे अस्वीकार कर दिया। सैकड़ों शाक्य स्त्रियों को ले कर उसने वैशाली तक भगवान का पीछा किया। रोती हुई ,उदास, सूजे पैरों वाली स्त्रियों को जब आनंद ने देखा तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना स्वीकार करने की याचना की। आनंद ने तीन बार आग्रह किया।  किन्तु , भगवान ने तीनों बार अस्वीकार किया। तब, आनंद ने दूसरे प्रकार से भगवान को मनाने की सोची। उन्होंने भगवान से कहा -
"भंते ! घर से  बेघर प्रव्रजित स्त्रियां क्या स्रोतापति फल,सकृतगामी फल,   अनागामी फल और अर्हत्व का साक्षात्कार कर सकती है ?"
"साक्षात्कार कर सकती है, आनंद । - भगवान ने कहा।
"भंते ! साक्षात्कार कर सकती है अर्थात वे प्रव्रजित हो सकती हैं ? भगवान ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रजित होने की अनुज्ञा मिले। " -आनंद से सहमत होते हुए भगवन ने आठ शर्तों के साथ महिलाओं को संघ में प्रव्रजित होने की अनुज्ञा दे दी।  नि:संदेह आनंद बीच में न पड़ते तो स्त्रियों को धम्म में प्रव्रजित  होने अनुज्ञा नहीं मिलती ।

सम्भवत: इसी लिए भिक्षुणियां, आनंद का बहुत सम्मान करती थी। आनंद को कोई कुछ कहे या उनका अपमान करे, भिक्षुणियां तुरंत आनंद का पक्ष लेती। आनंद गृहणियों के भी बहुत चहेते थे। जब वे उपदेश देने लगते तो वे उन्हें घेर लेती। धर्म के सम्बन्ध में उनसे नाना प्रकार से प्रश्न पूछती।

एक बार आनंद, जब कौशम्बी गए तो राजा के अंत:पुर की स्त्रियां उनके  पास गई और उनका उपदेश सुना। वे उनसे इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने आनंद को पांच सौ चीवर दिए। इसी तरह की घटना कौशल नरेश प्रसेनजित के राज दरबार की है। राजा प्रसेनजित ने भगवन से प्रार्थना की कि वे पांच सौ भिक्षुओं के साथ रोज राजमहल पधारा करें।  भगवान ने कहा कि उनके लिए रोज रोज एक ही स्थान पर उपदेश देने जाना असम्भव है। तब, उनसे किसी योग्य भिक्षु को ही भेजने की प्रार्थना की। जब यह खबर राजमहल के अंत:पुर पहुंची तो वहाँ से इसके लिए आनंद को भेजने की गुजारिश की गई ।

मगर, गृहणियों और भिक्षुणियों का यह चहेतापन आनंद के गले भी पड़ा। एक गृहणी की कन्या आनंद को देख कर मोहित हो गई। यह जानते हुए भी कि आनंद प्रव्रजित है, उसने अपनी माता से कहा कि वह आनंद से प्रेम करती है और उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकती। कन्या की माता अपनी पुत्री का यह हठ देख कर भौचक रह जाती है। अंतत: मामला भगवन बुद्ध के पास जाता है। भगवान, कन्या को बुला कर उसे शांत कराते हैं। कन्या, भगवान के उपदेश से प्रभावित हो भिक्षुणी बन जाती है। 

आनंद और सारिपुत्र के बीच प्रगाढ़ मैत्री थी। चूँकि सारिपुत्र भगवन के प्रधान शिष्य थे , इसलिए आनंद सारिपुत्र का बहुत सम्मान करते थे। उधर, आनंद के भगवन की सेवा में रहने से सारिपुत्र भी आनंद का उतना ही सम्मान करते थे। साधारण लोगों के प्रति और विशेष कर किसी कठिनाई में पड़े व्यक्ति के प्रति आनंद बेहद सहानुभूति रखते थे। बौद्ध ग्रंथों में भगवन के साथ आनंद ने जो बीमार भिक्षु की सेवा की थी, वह प्रेरणादायी उदाहरण जग जाहिर है।
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आनंद को एक और बात के लिए जाना जाता है और वह है उनकी अदभुत स्मरण शक्ति।   समय-समय पर भगवान बुद्ध के विभिन्न अवसरों पर दिए गए प्रवचनों को आनंद जस का तस याद कर लेते थे।  इसलिए उन्हें धम्मभांडागरिक की पदवी से विभूषित किया गया था । याद रहे, बौद्ध धम्म ग्रंथों के सुत्तपिटक के प्रथम पांच निकायों में प्रत्येक सुत्त  'एवं मे सुतं (ऐसा मैंने सुना ) से आरम्भ होता है। यहाँ 'मैंने ' शब्द आनंद के लिए आता  है। पाली धम्म ग्रंथों से पता चलता है कि आनंद जल्दी-जल्दी बोलने में भी माहिर थे।

एक बार भिक्षुओं की सभा में भगवन ने अपने मुख से स्वयं आनंद में पांच विशेष गुण बतलाए थे । उन्होंने कहा था कि आनंद प्रत्युत्पन्न-मति है , वह अच्छे व्यवहार वाला है। वह धारणा शक्ति वाला और दृढ़ निश्चयी है। एक और अवसर पर भगवन ने कहा था कि आनंद में एक अद्भुत विशेषता है और वह यह कि जो भी आनंद के दर्शनार्थ आता है , वह उन के उपदेश से संतुष्ट हो जाता है । कितनी ही देर उनका  उपदेश सुने, उसकी इच्छा पूरी नहीं होती। 

जब भगवन को लगा कि उनके परिनिर्वाण का समय निकट है तो उन्होंने आनंद को बुला कर इससे अवगत कराया। आनंद को इससे बड़ा आघात लगा। आनंद के दुखी: होने पर  उन्हें पास बुला कर भगवन ने कहा - "आनंद ! क्या मैंने पहले नहीं कहा था कि सभी प्रिय और अप्रिय का वियोग अवश्यसम्भावी है ?"
"हाँ भंते ! भगवन ने ऐसा ही कहा था। " - अश्रुपूर्ण नेत्रों से भगवन की ओर देख कर आनंद ने हामी भरी ।  

भगवन के परिनिर्वाण के बाद सम्पन्न प्रथम संगति में संगति का अध्यक्ष आनंद को ही चुना गया था। इस संगति  में महाकश्यप ने आनंद से धम्म के बारे में और उपालि से विनय के बारे में प्रश्न पूछे थे।

बौद्ध धम्म ग्रंथों में आनंद के लम्बी आयु जीने का जिक्र है। उनकी आयु 120 वर्ष बतलायी जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने अपने अंतिम समय पर वैशाली से बहती रोहणी नदी में जल समाधि ली थी।
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स्रोत -'बुद्ध और उनके समकालीन भिक्षु' लेखक: डॉ भदंत सावंगी मेधंकर

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