Wednesday, January 22, 2014

सारिपुत्त (Sariputta)

 सारिपुत्त (ई पू  527 )

Photo :Threeroyalwarrior.tripod.com

जैसे कि पूर्व  में कहा गया है , सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन, भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्यों में प्रमुख शिष्य थे।  महा-मौद्गल्यायन जहाँ तपस्वी और तात्विक ज्ञाता थे वही, सारिपुत्त धम्म के विशेषज्ञ माने जाते थे।  सारिपुत्र ने ही अभिधम्म की परम्परा शुरू की थी।

सारिपुत्त का जन्म नालक ग्राम में हुआ था। उनके बचपन का नाम उपतिष्य था। उनके माता का नाम रूप सारी था। सारिपुत्त के पिता का नाम वगंत था जो गावं के प्रधान थे। उपतिष्य और कोलित के परिवार के बीच पिछले सात पीढ़ियों से मैत्री सम्बन्ध चल रहा था और इसलिए इन दोनों बाल-सखाओं के बीच मैत्री स्वाभाविक थी।

शुरु में उपतिष्य और कोलित दोनों मित्र संजय नामक परिव्राजक के आश्रम में ज्ञानार्जन के लिए गए थे। कुछ समय के बाद उनकी मुलाकात भगवान बुद्ध और उनके  भिक्षु संघ से होती है। दोनों मित्र भगवन बुद्ध की धम्म देशना से प्रभावित होते हैं और याचना करते हैं कि भगवन के हाथों उन्हें प्रव्रज्या और उपसंपदा मिले। भगवन ने उन्हें उपसंपदा प्रदान करते हैं। उधर, भगवान भी उपतिष्य और कोलित को अपने शिष्य के तौर पर  पाकर प्रसन्न होते हैं।  भगवान, भिक्षुओं को कहते हैं कि वे उनके प्रधान श्रावक होंगे। हम देखते है कि आगे सचमुच, उपतिष्य (सारिपुत्त) और कोलित (महा मोग्गलायन ) दाएं और बाएं हाथ के रूप में भगवान के साथ होते हैं ।

भगवन विशेष अवसरों पर वे दोनों को अपने साथ ले जाया करते थे। पहली बार जब भगवन कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के महल में पधारे  थे तब , उनसे मिलने जो दर्शनार्थी आए थे उन में यशोधरा नहीं थी। राजकुमारी को विश्वास था कि भगवन स्वयं उन्हें दर्शन देने आएँगे और हुआ भी यही । भगवन सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन के साथ यशोधरा के महल में गए। भगवन ने सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन को कहा था कि यशोधरा जैसे भी उनसे मिलना चाहे , उसे न रोके।

सारिपुत्त और महा-मोग्गलायन भगवन के धम्म में पारंगत माने जाते थे ।  भगवन अपने शिष्यों को इनका उदहारण देते हुए कहते थे  - "भिक्षुओं,  सारिपुत्त-महा मोग्गलायन का अनुकरण करो। उनको सहयोग दो। सारिपुत्त जननी के समान है, तो मोग्गलायन नर्स (दाई ) के समान। वे चार आर्य सत्यों को ठीक-ठीक जानते और समझते हैं।"
भगवन के कथन का  समझ कर सारिपुत्त उपस्थित भिक्षुओं को उपदेश देने लगे।  सर्व प्रथम भगवन ने सारनाथ में जो धम्म देशना की थी , सारिपुत्र उसे ही सरल शब्दों में समझाते थे । वे बतलाते,  दुःख क्या है ? दुःख दूर होने का उपाय क्या है ? चार आर्य -सत्य और आर्य -अष्टांगिक मार्ग क्या है ?

एक अवसर पर भगवन ने कहा था -सारिपुत्त,  तुम ज्ञानी हो। तुम्हारा ज्ञान प्रकट और व्यापक है। जैसे चक्रवर्ती राजा का ज्येष्ठ पुत्र अपने  पिता का चक्र घुमाता है , तुमने ठीक ढंग से उसी तरह मेरा धम्म -चक्र घुमाया है। तुम मेरे धम्म-सेनापति हो। इस तरह भगवन ने अपने मुख से सारिपुत्र को धम्मसेनापति की पदवी से विभूषित किया था।
एक जगह भगवन ने सारिपुत्त का उदाहरण देकर एक परिपूर्ण शिष्य के लक्षण गिनाए थे। उन्होंने कहा था-  भिक्षुओं ! सारिपुत्त पंडित है। वह महा प्रज्ञावान है। तीक्ष्ण ज्ञान युक्त है, प्रज्ञा सम्पन्न है। भिक्षुओं ! सारिपुत्र की तरह प्रज्ञा शील और तीक्ष्ण बुद्धि युक्त बनो। भिक्षुओं, सारिपुत्त ने तथागत की तरह धर्म का सम्यक रूप से अनुप्रवर्तन किया है।
एक बार सारिपुत्त शय्या के अभाव में बाहर पेड़ के नीचे सारी रात बैठे रहे। तीसरे पहर के लगभग भगवन को लगा कि बाहर पेड़ के नीचे कोई है।

"यहाँ कौन है ?" -भगवन ने पूछा।
भगवन, मैं सारिपुत्त हूँ। "
"सारिपुत्त, तुम वहाँ क्यों बैठे हो ?"
"भगवन , अंदर कुटी में शय्या खाली नहीं थी, इस कारण मैं यहाँ पेड़ के नीचे सारी रात बैठा रहा।
सारिपुत्त की बात सुनकर भगवन को कष्ट हुआ।  भगवन ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा -
"भिक्षुओं ! प्रथम आसन , प्रथम जल , प्रथम परोसा किसके लिए है ?"
इस पर किसी ने क्षत्रिय/ ब्राह्मण कुल से प्रव्रजित के लिए तो किसी ने गृहपति कुल से प्रव्रजित होने के लिए तो किसी ने सूत्रधर /विनयधर /धर्मधर कुल के लिए कहा। तब, भगवन ने कहा- भिक्षुओं, भिक्षु संघ में जो पहले प्रविष्ट हुआ , फिर चाहे वह किसी कुल का हो , ज्येष्ठ हैं। जो पीछे प्रव्रजित हुआ , वह कनिष्ठ है। इसी नियम के अनुसार आदर सत्कार अभिवादन, प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा चाहिए।

सारिपुत्त के उपदेश भगवन के उपदेश की तरह होते थे।  यह इस उस घटना से स्पष्ट है जिस में भगवन अपने लिए एक स्थायी उपस्थाक की व्यवस्था के लिए भिक्षु संघ से कहते हैं। भगवन के यह कहने पर कि उन्हें स्थायी उपस्थाक की जरुरत है, सारिपुत्त कहते हैं -
 "भंते ! मैं आपकी सेवा करूँगा। "
"नहीं सारिपुत्त ! जिस दिशा में तुम जाते हो , फिर उस दिशा में मुझे जाने की आवश्यकता नहीं रहती। तुम्हारे उपदेश तथागत के उपदेश के समान होते हैं। इसलिए सारिपुत्त,  मुझे तुम्हारी सेवा नहीं चाहिए। " - भगवान ने सारिपुत्त से कहा था। विदित रहे , बाद में यह कार्य आनंद ने स्वीकारा था।

यद्यपि सारिपुत्त सभी भिक्षुओं से समान रूप से  व्यवहार करते थे।  किन्तु , आनंद और मोग्गलायन से वे कुछ विशेष लगाव रखते थे। मोग्गलायन उनके बचपन के साथी थे। जिस प्रकार से वे भगवन की सेवा करना चाहते थे, ठीक उसी प्रकार की सेवा आनंद कर रहे थे। इसी कारण से वे आनंद से विशेष लगाव रखते थे। आनंद भी उनका बड़ा आदर करते थे। यह इस प्रसंग से स्पष्ट है - एक बार भगवन ने आनंद से पूछा -
 "आनंद ! तुम्हें सारिपुत्त अच्छे लगते हैं ?"
" नि:संदेह भंते ! सारिपुत्त अच्छे लगते हैं।  आयुष्मान सारिपुत्त, पंडित है, महाप्रज्ञानवान है, अल्पेच्छुक है, निर्विकल्प है , प्रयत्नशील है।  भंते !  ऐसे सारिपुत्त, किसे अच्छे नहीं लगते ?" - आनंद का  जवाब था।
"ऐसे ही है,  आनंद ! जो तुमने कहा, मैं उसका समर्थन करता हूँ। " -भगवन के स्वीकार किया।

सारिपुत्त का परिनिर्वाण कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। उसके दो सप्ताह बाद ही महा-मोग्गलायन का देहांत हुआ।
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स्रोत -'बुद्ध और उनके समकालीन भिक्षु' लेखक: डॉ भदंत सावंगी मेधंक

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