Thursday, December 27, 2018

अनुज्ञा परस्सपद

आओ पालि सीखें
इन क्रियाओं का ध्यान से देखें-
देहि- दो(क्रिया- देति)।  वदेहि- कहो( क्रिया- वदति)।
पठाहि- पढ़ो(क्रिया- पठति)। खमतु- क्षमा करे(क्रिया- खमति) आदि अनुज्ञा परस्पद की क्रियाएं हैं।
अनुज्ञा परस्सपद
क्रिया ‘पठति’(धातु पठ) का प्रयोग
अनुज्ञा परस्सपद आदेश, प्रार्थना, सलाह, इच्छा आदि को व्यक्त करने प्रयोग होता है।
पुरिस एकवचन अनेकवचन
उत्तम पुरिस          अहं पठामि। मयं पठाम।
मैं पढ़ूं। हम पढ़ें।
मज्झिम पुरिस   त्वं पठ/पठाहि। तुम्हे पठथ।
तुम पढ़ो। तुम लोग पढ़ो।
पठम पुरिस            सो पठतु।  ते पठन्तु।
वह पढ़े। वे पढ़ें।
वाक्य रचना-
इध(यहां) आगच्छ/आगच्छाहि(आओ)।
सदा माता-पितुन्न वचनकरा भवथ(हों)।
अनुपाहनेन(जूते-चप्पलों के) बिना मा चलथ(चलो)।
मम(मेरा) आसयं(आश्य) सुणोतु(सुनो)।
दन्ते(दोतों को) मञ्जेय (मांजो)।
इदानि(ये) पोत्थकानि यथा ठानं ठापय(रखो)।
द्वारं उग्घाटेतु(खोलो)।
सतं वस्सं(वर्ष) जीवतु(जीवो)।
यानं मन्दं चालेतु।
आसन्दं इध आनेतु।
विजनं(फंखा) चालेतु।
अजयं(अजय को) इदं(यह) सूचेतु(सूचित करो)।
अज्ज चलचित्तं पस्साम(देखते हैं)।
अवगच्छन्तु(समझे)?
आम, अवगच्छाम(समझ गए)।
यमहं(एवं-अहं)(जैसे मैं) वदामि तं(उसे) वदेहि/वदेथ(कहो)।

अनुज्ञा परस्सपद के (निषेधात्मक) वाक्यों में ही ‘मा(मत)’ का प्रयोग होता है-
मा(मत) गच्छ(जाओ)।
मा अगमासि(आओ)।
मा अठासि(खड़े हो)।
मा भुञ्जि(खाओ)।
अनुपाहनेन बिना मा चलथ(चलो)।
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Tuesday, December 25, 2018

पुप्फ पूजा

पुप्फ पूजा 
वण्ण-गन्ध-गुणोपेतं,  एतं कुसुम-सन्ततिं।
वण्ण(वर्ण)-गधं और गुण-उपेतं(गुणों से युक्त) एतं(ऐसे) कुसुम-गुन्थित सन्तति(माला) से
पूजयामि   मुनिन्दस्स,  बुध्दपाद1 -सरोरूहे।।
पूजयामि(मेरे द्वारा पूजा की जाती है) मुनिन्दस्स(महामुनि), बुद्ध के पाद सरोरुहे(कमलों) की।

पूजेमि  बुध्दं  कुसुमेन-नेन, पुञ्ञेन  मेत्तेन लभामि मोक्खं।
मैं पूजा करता हूँ, बुध्दं(बुध्द की) कुसुमेन-अनेन(इन पुष्पों के द्वारा) पुञ्ञेन(पुण्य से), मेत्तेन(मैत्राी से) लभामि(लाभ प्राप्त होता है, मुझे) मोक्खं(निब्बान) का।

पुप्फं मिलायति यथा इदं मे, कायो तथा याति विनासभावं।।
पुप्फं(पुष्प) मिलायति(कुम्हलाता है) जैसे(यथा), इदं मे(यह मेरी) काया वैसे ही(तथा) विनाश-भाव को याति(जाती है)।  प्रस्तुति- अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com
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1. मूलपाठ- सिरिपाद। संस्कृत शब्द ‘श्री’ को पालि में ‘सिरि’ कहा गया है। ‘श्री’ का अर्थ ‘लक्ष्मी’ से अभिप्रेरित है। बौद्ध ग्रंथों का भाषानुवाद जब संस्कृत में हुआ, उस काल में इस तरह के कई शब्दों का प्रयोग, चाहे-अनचाहे संस्कृत विद्वानों द्वारा किया गया। किन्तु अब ऐसे अ-बौद्ध शब्दावली का स्थानापन्न चरणबध्द रूप से करने की आवश्यकता है। 


Saturday, December 22, 2018

तीनों काल में किरिया(क्रिया) के रूप-

2. तीनों काल में कुछ क्रियाओं के रूप-
  1. वर्तमानकाल      भूतकाल अनागतकाल
  2. करोति(करना) करि करिस्सति
  3. चलति(चलना)- चलि चलिस्सति
  4. धावति(दौड़ना) धावि  धाविस्सति
  5. खादति(खाना)- खादि  खादिस्सति
  6. वदति(कहना)- वदि  वदिस्सति
  7. पूजति(पूजा करना) पूजि  पूजिस्सति
  8. पठति(पढ़ना)-       पठि  पठिस्सति
  9. लिखति(लिखना)- लिखि  लिखिस्सति
  10. याचति(याचना करना)- याचि  याचिस्सति
  11. पिबति(पीना)- पिबि  पबिस्सति
  12. नच्चति(नाचना)- नचि नच्चिस्सति
  13. गायति(गाना)- गायि  गायिस्सति
  14. वादेति(बजाना)- वादि  वादिस्सति
  15. सुणोति(सुनना)- सुणि  सुणिस्सति
  16. धोवति(धोना)-   धोवि धोविस्सति
  17. वसति(निवास करना)- वसि  वसिस्सति
  18. रुदति(रोना)- रुदि  रुदिस्सति
  19. होति(होना) अहोसि  हेस्सति
  20. भवति(होना)  भवि भविस्सति
  21. सयति(सोना)- सयि  सयिस्सति
  22. पतति(गिरना)  पति  पतिस्सति
  23. पुच्छति(पूच्छना) पुच्छि  पुच्छिस्सति
  24. गण्हाति(ग्रहण करना) गण्हि  गण्हिस्सति
  25. लभति(प्राप्त करना)  लभि  लभिस्सति
  26. चजति(त्याग करना)  चजि चजिस्सति
  27. वदति(बोलना)  वदि  वदिस्सति
  28. भासति(बोलना)  भासि भसिस्सति
  29. हसति(हंसना)  हसि  हसिस्सति
  30. रक्खति(रक्षा करना)  रक्खि  रक्खिस्सति
  31. खिप्पति(फैंकना)  खिप्पि खिप्पिस्सति
  32. निसीदति(बैठना)- निसीदि  निसीदिस्सति
  33. उट्ठहति(उठना)  उट्ठहि  उट्ठहिस्सति
  34. सेवति(सेवा करना)-  सेवि  सेविस्सति
  35. कम्पति(काम्पना)     कम्पि   कम्पिस्सति
  36. इच्छति(इच्छा करना)   इच्छि  इच्छिस्सति
  37. देति/ददाति(देना)  ददि  ददिस्सति
  38. भु×जति(खाना) भुि×ज  भुि×जस्सति
  39. जलति(जलना)- जलि  जलिस्सति
  40. पापुणोति(प्राप्त करना)  पापुणि  पापुणिस्सति
  41. पप्पोति(पाना)  पप्पोसि  पप्पोस्सति
  42. अधिगच्छति(प्राप्त करना)  अधिगच्छि अधिगच्छिस्सति
  43. अवगच्छति(समझना) अवगच्छि अवगच्छिस्सति
  44. कत्तेति(कातना) कत्तेसि  कत्तेस्सति
  45. लज्जति(लज्जाना)- लज्जि लज्जिस्सति
  46. सोभति(सोभा देना) सोभि  सोभिस्सति
  47. रुच्चति(रुचिकर लगना)  रोचि  रोचिस्सति
  48. निन्दति(निन्दा करना)  निन्दि  निन्दिस्सति
  49. जीवति(जीना)  जीवि  जीविस्सति
  50. पालेति(पालना)  पालेसि  पालेस्सति
  51. पवहति(प्रवाहित होना) पवहि  पवहिस्सति
  52. नहायति(नहाना)  नहायि  नहायिस्सति
  53. पाठेति(पढ़ाना)  पाठेसि  पाठेस्सति
  54. आचरति(आचरण करना)  आचरि  आचरिस्सति
  55. सरति(स्मरण करना)  सरि  सरिस्सति
  56. पेसेति(प्रेषित करना)  पेसेसि  पेसेस्सति
  57. पसंसति(प्रसंशा करना)  पसंसि  पसंसिस्सति
  58. सिब्बति(सिलाई करना)  सिब्बि  सिब्बिस्सति
  59. तिट्ठति(खड़ा होना)  तिट्ठि  तिट्ठिस्सति
  60. जानाति(जानना)  जानि  जानिस्सति
  61. सक्कोति(सकना)  सक्कि  सक्किस्सति
  62. गच्छति(जाना)  गच्छि  गच्छिस्सति
  63. आगच्छति(आना)  आगच्छि  आगच्छिस्सति
  64. नेति(ले जाना)  नेसि  नेस्सति
  65. आनेति(लाना)  आनेसि  आनेस्सति
  66. आरोहति(नीचे उतरना)  आरोहि  आरोहिस्सति
  67. ओतरति(उतरना)  ओतरि    ओतरिस्सति
  68. भमति(घूमना) भमि  भमिस्सति
  69. फलति(फलना)  फलि  फलिस्सति
  70. पविसति(प्रवेश करना)  पविसि  पविसिस्सति

Friday, December 21, 2018

धार्मिक आतंक

धार्मिक आतंक 
'आदमी से अधिक गाय की अहमियत' मोदी काल पर प्रसिद्द सिने अभिनेता नसरुद्दीन साह का गुस्सा सही में डर पैदा करता है. इसके पहले आमिर खान ने इस पर खुल कर बोलने की हिम्मत की थी. निस्संदेह देश का मुस्लिम डरा हुआ है, गुस्से में है. मुस्लिम समाज के ऐसे प्रतिष्ठित लोग, जो एक मुकाम हासिल कर चुके हैं, भी इस खौप को खुले में कहने से डरते हैं. क्योंकि उन्हीं के घरों के आस-पास अनुपम खेर जैसे लोग भी रहते हैं जो इस धार्मिक आतंक को 'बुद्धिजीवियों की गेंग' कह कर तरफदारी करते हैं ! 
और मुस्लिम ही क्यों, दलित क्या कम डरे हैं ? क्रश्चियन क्या कम डरे हैं ? बात हिम्मत की है, बेशक मुस्लिम समाज ने बड़ी ही बहादूरी से इस डर का मुकाबला किया है. दलित समाज इसके लिए उन्हें सलाम करता है. वर्तमान में, हिंदी राज्यों में कांग्रेस का उभरना फिलहाल हम समझते हैं, इस दक्षिणी धूर्व के डैने फैलाते गिद्ध के परों को कतरेगा, शक्ति कम करेगा.
गाय हो या सुअर, ये पशु हैं. आदमी और पशु में अन्तर है. जो भी हो, आदमी पशु नहीं हो सकता ? आदमी को हर हालत में आदमी बने रहना है. उसे आदमी और पशु में हर हालत में फर्क समझना है. सत्ता का मद आदमी को पशु नहीं बनाता. सनद रहे, जिन्होंने सत्ता के मद में आदमी को पशु समझा है, इतिहास ने उन्हें माफ़ नहीं किया है . उनके शरीर पर कीड़ें पड़े हैं.  

Tuesday, December 18, 2018

विभक्ति

पाठ 2
विभक्ति
संस्कृत की तरह पालि में भी 8 विभक्तियां होती हैं- पठमा, दुतिया, ततिया, चतुत्थी, पंचमी, छट्ठी, सत्तमी, आलपण। अकारान्त, आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारन्त आदि शब्दों के रूप थोड़े अलग- अलग होते हैं।
बुद्ध(अकारान्त पुल्लिंग)
कारक विभक्ति           एकवचन                  अनेकवचन
पठमा(कर्ता) ने             बुद्धो                         बुद्धा
दुतिया(कर्म) को                     बुद्धं                          बुद्धे
ततिया(करण)         से,द्वारा               बुद्धेन                        बुद्धेहि,बुद्धेभि
चतुत्थी(सम्प्रदान) को,के,लिए        बुद्धाय, बुद्धस्स बुद्धानं
पञ्चमी(अपादान)   से                    बुद्धा,बुद्धम्हा,बुद्धस्मा   बुद्धेहि,बुद्धेभि
छट्ठी(सम्बन्ध) का,के,की           बुद्धस्स                      बुद्धानं
सत्तमी(अधिकरण)   में,पर,पास        बुद्धे,बुद्धेम्हि,बुद्धिेस्मिं   बुद्धेसु
आलपण (सम्बोधन) हे, अरे!            बुद्ध! बुद्धा!                   बुद्धा!
अभ्यास-
1. पालि में केवल दो वचन होते हैं- एकवचन, अनेकवचन(बहुवचन)।
2. विभक्तियों को आप ऐसे याद कर सकते हैं- कर्तरि, कम्मत्थे, साधने, दानत्थे, विच्छेदे, सम्बन्धे, आधारे, सम्बोधने।
3. चतुत्थी और छट्ठी के विभक्ति रुप बहुधा समान होते हैं। इसी प्रकार ततिया और पञ्चमी के अनेकवचन में कारक रूप बहुधा समान होते हैं। पञ्चमी की विभक्ति ‘से’ दूरी को दर्शाती है।
4.अन्य अकारान्त (पु.) शब्द- धम्म, संघ, नर, मनुस्स, जनक, पुत्त, सहोदर, मातुल(मामा), किंकर(नौकर), धनिक, सिंह, सावक, गज, अज(बकरा), अस्स(घोड़ा), गदभ(गदहा), कुक्कुर/सोण(कुत्ता), वानर, महिस(भैंस), सकुण(चिड़िया), काक(कौआ), सुक(तोता), बक(बगुला), मोर, सप्प(सांप), नकुल, निगम, गोप(ग्वाला), पब्बत, तड़ाग(तालाब), लोहकार, सुवण्णकार, कुम्भकार, आचरिय(आचार्य), सिस्स(सिस्य), समुद्द(समुद्र), रुक्ख, अनल(आग), अनिल(हवा), आकास, सुरिय, चन्द, लोक, संसार, पोत, रथ, गाम, देस, भूप, पासाद, मज्जार(बिल्ली), बिडाल(बिल्ला), पमाद(प्रमाद), खय(क्षय), सारम्भ(झगड़ा) आदि।

5. अकारान्त (नपुं) शब्द- नगर, रट्ठ(राष्ट्र), पण्ण(पत्ता), मूल, तीर, खेत, जल, खीर, मंस(मांस), फल, पुप्फ, धञ्ञ(धान), सुवण्ण(सुवर्ण), पाप, कुल, नेत्त(नेत्र), मत्थक(मस्तक), सोत, मुख, पीठ, हदय, मञ्च, भत्त, धन, सुख, दुक्ख, कारण, बिम्ब, पोत्थक, चित्त, पुञ्ञ, हिरञ्ञ(सोना), आयुध, चीवर, ओदन(भात), ञाण(ज्ञान), वन, अरञ्ञ (जंगल) आदि।

‘फल’(अकारान्त नपुंसकलिंग )
पठमा         फलं फला,फलानि
दुतिया फलं फले,फलानि
-शेष रूप ‘बुध्द’ शब्द के समान।
-अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Friday, December 14, 2018

वर्ण परिचय

आओ पालि सीखें-
वर्ण परिचय
बुद्धकाल में हुए भदन्त कच्चायन ने पालि भाषा का व्याकरण तैयार किया था। उन्होंने उसमें  8 स्वर और 33 व्यंजन, इस तरह  41 वर्ण माने थे। स्मरण रहे, वैदिक भाषा में 64 और संस्कृत भाषा में 50 अक्षर होते हैं। भदन्त कच्चायन के अनन्तर भदन्त मोग्गलायन ने अपने व्याकरण में 10 स्वर और 33 व्यंजन माने जिसमें  स्वरों में ‘ऐ’ और ‘औ’  को और मिलाया गया था। किन्तु वर्तमान में कच्चायन व्याकरण ही मान्य है जिस में 8 स्वर और 33 व्यंजन होते हैं-
स्वर : अ  आ  इ  ई  उ  उ  ए  ओ
व्यंजनः क
 च झ  ञ
 ट
 त
 प
 य
 स अं

1. पांच-पांच वर्ण के पांच वर्ग होते हैं, जैसे क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग। क वर्ग में क ख ग घ ड ये पांच वर्ण आते हैं, इस प्रकार 33 वर्ण हैं। प्रत्येक वर्ग का पांचवां वर्ण ‘अनुनासिक’ होता है।
2. पालि में अं( ं ) को निग्गहित(अनुस्वार) कहते है। इसे व्यंजन माना जाता है। इसका उच्चारण ‘अं ’ और ग को मिलाकर किया जाता है। जैसे,  बुद्धं = बुद्ध-अं।
3. ङ और अं के उच्चारण में कोई अन्तर नहीं होता। ‘ङ’ कभी भी शब्द के अन्त में नहीं आता है, बल्कि उसके साथ सदैव उसी वर्ग का कोई व्यंजन रहता है।
4. ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ का उच्चारण ‘ह’ ध्वनि के साथ किया जाता है।
5.  पालि भाषा में विसर्ग( : ) और हलन्त( ् ) का प्रयोग नहीं होता है। सभी शब्द स्वरान्त होते हैं।
6. पालि में ‘ऋ’ वर्ण नहीं होता। इसके स्थान पर अ, इ, उ  वर्ण प्रयोग होते हैं।
यथा-  गृह - गहं। नृत्यं- नच्चं। यहां अ का उच्चारण हुआ।
ऋण- इणं। ऋषि - इसि। यहां ‘ऋ’ का इ और ‘षि’ का सि हुआ।
ऋतु- उतु। ऋषभ- उसभ। यहां ‘ऋ’ का उ हुआ।
7. पालि में मूर्धन्य ‘ष’ तथा तालव्य ‘श’ नहीं होते हैं। इन दोनों के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग होता है।
 यथा- यश- यस। शिष्य- सिस्स आदि।
8. हिन्दी का क्ष पालि में ‘क्ख’  हो जाता है। यथा-  शिक्षा- सिक्खा आदि।
9. इसी प्रकार ‘ऐ’ और ‘औ’ पालि में ए और ओ हो जाता है। यथा-
ऐरावण- एरावण। वैमानिक- वेमानिक। वैयाकरण- वेयाकरण।
कभी.कभी ‘ऐ’ का इ अथवा ई हो जाता है। यथा-
गैवेयं- गीवेय्यं। सैन्धव- सिन्धवं। औदरिक- ओदरिक। दौवारिक- दोवारिक।
कभी.कभी ‘औ’ का अथवा उ हो जाता है। यथा-
मौत्त्किक- मुत्तिक। औद्धत्य- उद्धच्च।
10. पालि में आधा 'र ’ नहीं होता। उसके स्थान पर निम्नानुसार शब्द-रूप बनते हैं-
कर्म- कम्म। सर्व- सब्ब। तर्हि- तरहि। महार्ह- महारहो। आर्य- अरिय। सूर्य- सूरिय। भार्या- भरिया। पर्यादान- परियादान। कृत- कित। प्रेत- पेतसमग्र- समग्ग। इन्द्र- इन्दो, आदि।
 -अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, December 13, 2018

'सत्ता परिवर्तन' में दलित नेता ?

मध्य भारत के तीन बड़े राज्यों में भाजपा से सत्ता छिनना दलित परिप्रेक्ष्य में, देश के जन-तांत्रिक ढाँचे के लिए एक बड़ी उपलब्धि के साथ आशा का सन्देश है. मगर, इस 'सत्ता परिवर्तन' में रामविलास पासवान, उदितराज जैसे दलित नेताओं की चुप्पी बेहद डरावनी है ! रामदास आठवले सुर्ख़ियों में आए भी तो 'थप्पड़ खाने' जैसे असोभनीय प्रसंग में ? सनद रहे, भाजपा में होते हुए भी SC/ST Atrocity सम्बन्धी मामलों पर इन नेताओं ने बेहद कड़ा रुख अख्तियार किया था, जिसे हम इतने शीघ्र विस्मृत नहीं कर सकते.

Wednesday, December 12, 2018

बसपा में स्थानीय नेतृत्व ?

बहुजन समाज पार्टी के संगठणात्मक ढाँचे से प्रतीत होता  है कि बहन मायावती, किसी तगड़े दावेदार से आवश्यकता से अधिक आशंकित रहती है और यही कारण है कि उ प्र सहित चाहे जो स्टेट हों, किसी सशक्त नेतृत्व को उभरने नहीं दिया जाता. हमने म प्र में फुलसिंग बरैया का हश्र देखा है.
बेशक, देश में बसपा चौतरफा जनाधार वाली पार्टी है. मगर, इसका श्रेय बहन मायावती से कहीं अम्बेडकर-मूव्हमेंट को है जिसकी पैठ और व्यापकता दलित-आदिवासियों से लेकर ओबीसी और अल्पसंख्यकों तक है. कांसीराम साहब और उनसे उत्तराधिकार में प्राप्त यह आन्दोलन बहन मायावती के कन्धों पर स्वाभाविक रूप से है.
दलित, स्वाभाविक रूप से बसपा को अपनी पार्टी मानते हैं. वे दलित, जो किन्हीं कारणों-वश विरोधी पार्टियों में हैं, बसपा को 'दलित स्वाभिमान' के रूप में ही देखते हैं. सवाल है, आप प्रभारी भेज कर कब तक काम चलाओगे ? प्रभारी की अपनी सीमा होती है. आखिर, म प्र में स्थानीय नेतृत्व को क्यों उभरने नहीं दिया जाता ?

Sunday, December 9, 2018

बौद्ध धर्मान्तरण का प्रश्न ?

बौद्ध धर्मान्तरण का प्रश्न ?
भारतीय समाज धर्म के खानों में बंटा है है है. यहाँ बिना धर्म के आप रह नहीं सकते, कानूनी या व्यवहार में. यहाँ आपको किसी न किसी खाने में रहना होता है, वर्ना आप सरवाईव नहीं कर सकते. बौद्ध धर्म ही सबसे अच्छी च्वाईश थी, तब बाबासाहेब अम्बेडकर के पास. लगातार 30 वर्ष सतत मनन और अध्ययन के बाद 1956 में अन्तत; उन्होंने इस पर अमल किया. बात सिर्फ एक अकेले बाबासाहेब की नहीं थी, उनके दलित-शोषित समाज की थी, जिनके मानवीय अधिकारों का प्रश्न उनके अपने व्यक्तित्व से बड़ा था. 
प्रश्न, अम्बेडकर को प्रश्नगत करने या न करने का नहीं है, और न प्रश्न करने वाले की योग्यता और हैसियत का ? प्रश्न बेशक, किए जाने चाहिए. और होते रहेंगे. क्योंकि इससे चिंतन के नए-नए आयाम खुलते हैं. प्रश्न ति-पिटक में घुसे ब्राह्मणवाद से है, तो निस्संदेह उसे दूर किया जाना चाहिए और बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' उसी दिशा में कदम था. किन्तु अगर प्रश्न अम्बेडकर मुव्हमेंट को कटघरे में करने का है तो उसके दुष्परिणामों की भी चिंता उसी सिद्दत से की जानी चाहिए. आरएसएस और विश्व-हिन्दू परिषद के लोग तो तके बैठे हैं, इसे डायलुट और दिशा-भ्रम करने ?

Saturday, December 8, 2018

अट्ठङग उपोसथ-सीलं

अट्ठङग उपोसथ-सीलं
1. पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि ।। 1।।
    मैं पाणा-इति-पाता(प्राणी-हिंसा) से विरति(विरत रहने) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
2. अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 2।।
    मैं जो दिया गया न हो(अदिन्न) को न लेने (अ-दाना)  की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
3. असाधुचरिया1 वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 3।।
    मैं असाधु- आचरण (चर्या) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
4. मुसावादा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 4।।
   मैं झूठ(मूसा) वचन(वादा) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
5. सुरा मेरय मज्जप्पमादट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 5।।
    मैं सुरा, मेरय, मज्ज(मद्य) और प्रमाद उत्पन्न होने के स्थान (प्रमाद-ट्ठाना) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण         करता/करती हूँ .
6. विकाल-भोजना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 6।।
    मैं विकाल(दोपहर 12 बजे से के बाद) भोजन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
7. नच्च-गीत वादित-विसूकदस्सन माला-गंध-विलेपन-धारण-मण्डन-विभूसनट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं            समादियामि।। 7।।
    नाच-गाना, बजाना, विसूकदस्सन(अशोभनीय खेल-तमाशे देखना), माला, सुगंध, विलेपन, मण्डन-                   विभूसनट्ठाना(सिंगार आदि स्थान) से विरत रहने की मैं शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
8. उच्चासयन-महासयना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 8।।
    मैं ऊंचे, महासयना(विलासिता-पूर्ण सयन) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।

भन्ते-   तिसरणेन सह अट्ठङग समन्नागतं उपोसथ-सीलं धम्मं साधुकं सुरक्खितं कत्वा अप्पमादेन                           सम्पादेहि।
  ति-सरण  के साथ (ति-सरणेन सह) आठ अंगों से(अट्ठङग) युक्त (समन्नागतं) उपोसथ सील-धम्म को साधुकं(भलि-भांति) सुरक्खितं कत्वा(सुरक्षित कर) अ-पमादेन(अ-प्रमाद के साथ) सम्पादेहि(सम्पादन करो)।

उपासक/उपासिका- आम, भंते!

अभ्यास
अट्ठङग- आठ अंग। समन्नागतं- युक्त। असाधुचरिया- असाधु-आचरण।
विकाल भोजन- दोपहर 12 बजे के बाद किया जाने वाला भोजन।
नच्च-गीत वादित- नाच-गाना बजाना। विसूकदस्सन- अ-शोभनीय(वि-सूक) खेल-तमाशे देखना। माला-गंध- माला, सुगन्ध।विभूसनट्ठाना- आभूषण आदि धारण करने के स्थान। महासयना- विलासिता-पूर्ण सयन । समादियामि- मैं अंगीकार करता हू।
..................................
1. मूलपाट- अब्रह्मचरिया।  देवी, देवता, स्वर्ग, नरक, ईस्वर, ब्रह्मा, श्री, ओंकार आदि अबौद्ध संस्कृति के शब्द हैं। यथा प्रयास इनका स्थानापन्न आवश्यक है।
उक्त आठ शील बौद्ध उपासक/उपासिका अथवा सामणेर/ सामणेरी उपोसथ के समय पालन करते हैं। महावग्ग(अंगुत्तर निकाय)  के उपोसथ सुत्त में बुद्ध ने मिगारमाता(विसाखा) को उपोसथ की महिमा बतलाते हुए इन आठ शीलों को सही अर्थों में पालन करने कहा है। दोनों पक्ष की अष्टमी, अमावस की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की पूर्णिमा; ये चार दिन उपोसथ के दिन माने जाते हैं।
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, December 6, 2018

अम्बेडकर

यूं तो गुलशन में पैदा हुए, गाँधी और नेहरू भी।
मगर, फुल खिलें हैं जुबां-जुबां पर, तो अम्बेडकर ही।
कि तासीर हम कहें क्या उनकी, और उनके कैफियत की।
ढूंढते हैं, लोग निशां उनके, दरो और दीवारों पर।
कि करोगे क्या, शोहरत और पैसा, सब धरे रह जाएँगे,
लटका के जब हाथ चले जाओगे, इन्ही मीनारों पर।

Wednesday, December 5, 2018

वर्ण परिचय

 पाठ 1
वर्ण परिचय
बुद्धकाल में हुए भदन्त कच्चायन ने पालि भाषा का व्याकरण तैयार किया था। उन्होंने  उस में  41 वर्ण और 33 व्यंजन माने थे। स्मरण रहे, वैदिक भाषा में 64 और संस्कृत भाषा में 50 अक्षर होते हैं। भदन्त कच्चायन के अनन्तर भदन्त मोग्गलायन ने अपने व्याकरण में ‘ऐ’ और ‘औ’ को मिलाकर 10 स्वर और व्यंजन 33  ही माने। वर्तमान में कच्चायन व्याकरण ही व्यवहार में है, जिस में निम्नानुसार  8  स्वर और 33  व्यंजन होते हैं-
स्वर : अ  आ  इ  ई  उ  उ  ए  ओ
व्यंजनः क
 च झ  ञ
 ट
 त
 प
 य
 स अं
1. पांच-पांच वर्ण के पांच वर्ग होते हैं, जैसे क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त
वर्ग, प वर्ग। क वर्ग में क ख ग घ ङ ये पांच वर्ण आते हैं, इस प्रकार
33 वर्ण हैं। प्रत्येक वर्ग का पांचवां वर्ण ‘अनुनासिक’ होता है।
2. पालि में अं को निग्गहित(अनुस्वार) कहते है। इसे व्यंजन माना जाता है। इसका उच्चारण ‘अं ’ और ग को मिलाकर किया जाता है। जैसे बुद्धं = बुद्ध - अं।
3. ङ और अं के उच्चारण में कोई अन्तर नहीं होता। ‘ङ’ कभी भी शब्द के अन्त में नहीं आता है, बल्कि उसके साथ सदैव उसी वर्ग का कोई व्यंजन रहता है।
4. ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ का उच्चारण ‘ह’ ध्वनि के साथ किया जाता है।
5.  पालि भाषा में विसर्ग( : ) और हलन्त( ् ) का प्रयोग नहीं होता है। सभी शब्द स्वरान्त होते हैं।
6. पालि में ‘ऋ’ वर्ण नहीं होता। इसके स्थान पर अ, इ, उ  वर्ण प्रयोग होते हैं। यथा-   गृह - गहं। नृत्यं- नच्चं। यहां अ का उच्चारण हुआ।
ऋण- इणं। ऋषि - इसि। यहां ‘ऋ’ का इ और ‘षि’ का सि हुआ।
ऋतु- उतु। ऋषभ- उसभ। यहां ‘ऋ’ का उ हुआ।
7. पालि में मूर्धन्य ‘ष’ तथा तालव्य ‘श’ नहीं होते हैं। इन दोनों के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग होता है। यथा-  यश- यस। शिष्य- सिस्स आदि।
8. हिन्दी का क्ष पालि में ‘क्ख’  हो जाता है। यथा-  शिक्षा- सिक्खा आदि।
9. इसी प्रकार ‘ऐ’ और ‘औ’ पालि में ए और ओ हो जाता है। यथा-
ऐरावण- एरावण।
वैमानिक- वेमानिक।   वैयाकरण- वेयाकरण।
कभी.कभी ‘ऐ’ का इ अथवा ई हो जाता है। यथा-
गैवेयं- गीवेय्यं।  सैन्धव- सिन्धवं।
औदरिक- ओदरिक। दौवारिक- दोवारिक।
कभी.कभी ‘औ’ का अथवा उ हो जाता है। यथा-
मौत्त्किक- मुत्तिक। औद्धत्य- उद्धच्च।
10. पालि में ‘आधा र ’ नहीं होता। उसके स्थान पर निम्नानुसार शब्द-रूप बनते हैं-
कर्म- कम्म। सर्व- सब्ब।
तर्हि- तरहि। महार्ह- महारहो।
आर्य- अरिय। सूर्य- सूरिय।
भार्या- भरिया। पर्यादान- परियादान।
कृत- कित। प्रेत- पेत।
समग्र- समग्ग। इन्द्र- इन्दो, आदि।

Sunday, December 2, 2018

बहू-बेटियों की दोहरी जिम्मेदारियां

बहू-बेटियों की दोहरी जिम्मेदारियां 
आजकल हमारी बहू-बेटियां सार्वजनिक/निजी प्रतिष्ठानों में काफी मात्रा में काम करती हैं. परन्तु दोनों के कार्य-प्रकृति के अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आदमी के लिए मालिक प्रथम होता है. अर्थात वह ड्यूटी पर घर को परे रख, अपने काम और काम के प्रति जिम्मेदार होता है. जबकि बहू-बेटियों के लिए घर अथवा पति प्रथम होता है. वे आफिस में काम करते हुए भी घर की जिम्मेदारी से चाह कर भी अलग नहीं हो पाती. उनकी यह दोहरी जिम्मेदारी कई बार आफिस अथवा घर में कलह का कारण भी बन जाती है. तत्सम्बंध में यह निहायत जरुरी है कि हम अपेक्षित उदारता और सहनशीलता का परिचय दें .

कन्यादान

कन्यादान
दलित समाज के लोग जो अभी हिन्दू संस्कृति और संस्कारों से अलग नहीं हो पाएं हैं, विवाह के अवसर पर 'कन्यादान' की रस्म करते पाएं जाते हैं.'कन्यादान' और उसका महिमागान अनैतिक और असामाजिक है. यह पितृत्व प्रधान समाज की लोप हो रही संस्कृति का हिस्सा है. 

कन्या कोई गाय नहीं जिसे विवाह के अवसर पर दान किया जाए. हम विवाह में पारम्परिक रस्म के तौर उसे दान देकर स्वभावत समाज के सामने:वर के हाथों 'उपभोग की वस्तु' साबित करते हैं. यह सामाजिक कबूलनामा उसे ताउम्र खुद को दान की वस्तु समझने का अहसास दिलाता है, दासी के रूप में प्रस्तुत करने बाध्य करता है.

 'कन्यादान' की रस्म हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, क्रश्चियन बौद्धों आदि समुदायों में नहीं होती. यह हिन्दुओं और सिर्फ हिन्दुओं में होती है.

नाम-रूप एक दूसरे पर निर्भर

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
"भंते नागसेन !
कतमं नामं, कतमं रूपं ?"
"नाम क्या चीज है और रूप क्या चीज है ?"
"यं तत्थ महाराज ! ओळारिकं,
महाराज ! जितने स्थूल चीजें हैं,
एतं रूपं
सभी रूप हैं और
ये तत्थ सुखुमा चित्त-चेतसिका धम्मा
जितने सूक्ष्म मानसिक धर्म हैं
एतं नामं।"
सभी नाम हैं।"

"भंते ! केन कारणेेन
"भंते ! किस कारण से
नामं एव न पटिसंदहति
केवल नाम का ही पुनर्मिलन नहीं होता
रूपं येव वा ?"
अथवा रूप का ही ?"

"अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
महाराज !  एक-दूसरे की निर्भरता से
एते धम्मा एकतोव उप्पज्जन्ति। "
ये धर्म एक साथ पैदा होते हैं। "

"ओप्पमं करोहि। "
"कृपया उपमा देकर समझाएं ?"

"यथा महाराज ! कुक्कुटिया कललं न भवेय्य
"महाराज ! जैसे मुर्गी को कलल  न हो
अंड अपि न भवेय्य
तो अंडा भी न हो।

यं च तत्थ कललं, यं च अण्ड
जहाँ कहीं कलल है, वहां अण्डा  है
उभोपेते अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
 दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं
एकतोव नेसं उप्पति होति
उनकी(नेसं) उत्पत्ति एक साथ  होती है


एवमेव खो महाराज !
इसी तरह महाराज  !
यदि तत्थं नामं न भवेय्य
यदि नाम न हो
रूपं अपि न भवेय्य
तो रूप भी न हो

यंचेव तत्थ नामं, यंचेव रूपं
जहाँ कहीं नाम होगा, रूप भी होगा
उभोपेते  अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं
एकतोव नेसं उप्पति होति
उनकी उत्पत्ति एकसाथ होती है
एवमेतं दीघ अद्धानं संधावितं।"
यह अनंत काल से होता चला है।"

"कल्लोसी भंते नागसेन !"
"भंते ! आपने ठीक कहा।"
-अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com   

Saturday, December 1, 2018

कर्म का सिद्धांत (मिलिंद पन्ह)

कर्म का सिद्धांत
.‘‘भन्ते नागसेन, को पटिसन्दहति?’’ राजा आह।
‘‘भन्ते नागसेन, कौन पुनर्मिलन करता है?’’
‘‘नामरूपं महाराज, पटिसन्दहति।’’ थेरो आह।
‘‘महाराज! नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’
‘‘किं इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति?’’
‘‘क्या यही नाम और रूप पुनर्मिलन करता है?’’
‘‘न खो महाराज, इमं येव नामरूपं न पटिसन्दहति।
‘‘ नहीं महाराज, यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता।

इमिना पन, महाराज, नामरूपेन कम्मं करोति, कुसलं वा अकुसलं वा
किन्तु महाराज, इस नाम और रूप से कर्म करता है; कुशल आय अकुशल
तेन कम्मेन अञ्ञंं नामरूपं पटिसन्दहति।’’
उस कर्म से दूसरा नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’

‘‘यदि भन्ते, न इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति
‘‘यदि भन्ते! यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता
ननु सो मुत्तो भविस्सति अकुसलेहि कम्मेहि ?’’
तो निश्चय ही वह अकुशल-कर्मोंसे मुक्त होगा ?’’

‘‘यदि न पटिसन्दहेय्य, मुत्तो भवेय्य अकुसलेहि कम्मेही
‘‘यदि पुनर्मिलन न हो, तो मुक्त हो अकुशल कर्मों से
यस्मा च खो महाराज, पटिसन्दहति, तस्मा न मुत्तो अकुसलेहि कम्मेहि।’’
जब तक पुनर्मिलन होता है, तब तक अकुशल-कर्मों से मुक्ति नहीं।’’
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टीप-  भदन्त आनंद कोसल्यायन के शब्दों में, धम्म-ग्रंथों की बातें छान कर ही ग्रहण करने योग्य है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार मिलिंद पन्ह के पहले तीन परिच्छेद ही असली मालूम पड़ते हैं(दर्शन दिग्दर्शन पृ  550 )। बी एम बरुआ(प्रि-बुद्धिस्ट इंडियन फ़िलासफ़ी ), मल्ल शेखर आदि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त लेखकों और इतिहासविदों ने मिलिंद पन्ह की विषय सामग्री पर कई सवाल खड़े किए हैं (देवी प्रसाद चटोपाध्याय : लोकायत पृ  406)।

 बाबासाहेब डॉ आम्बेडकर ने मिलिंद पन्ह के उक्त ‘कर्म’ की ब्राह्मणी थ्योरी को यह कहते हुए अस्वीकार किया है कि बुद्ध के कर्म के सिद्धांत का संबंध मात्र ‘कर्म’ से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से(देखें- बुद्धा एॅण्ड धम्माः दूसरा भागः चतुर्थ काण्ड, कर्मः 2/3, पृ. 269)। कर्म की निरंतरता को पुनर्जन्म से जोड़ना महायानी संकल्पना है जो इस जन्म भूमि से बुद्धिज्म के ध्वंश का कारण  बनी।
-अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Friday, November 30, 2018

ञाण और पञ्ञा (मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

 ञाण और पञ्ञा
"किं भंते ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
 "क्या ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही चीज है ?"
"आम महाराज ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"हाँ, महाराज ! ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही है।"

"भंते नागसेन ! यस्स ञाणं  उप्पन्न,
"भंते ! नागसेन !  जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको क्या प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है ?"
"आम महाराज ! यस्स ञाणं  उप्पन्न,
"हाँ महाराज !  जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है।"

"यस्स पन भंते !
"भंते ! यदि ऐसी बात है
किं सम्मुय्हेय्य सो , उदाहु न सम्मुय्हेय्य ?"
तो वह मोह में पड़ेगा या नहीं ?"

"कत्थचि  महाराज ! सम्मुय्हेय्य,
"महाराज ! कहीं  मोह में होगा  ,
 कत्थचि न सम्मुय्हेय्य।
कहीं नहीं होगा ।

यस्स ञाणं न उप्पन्नंं,
महाराज ! जिन विषयों का उसे ज्ञान नहीं है,
तस्स सम्मुय्हेय्य
उन विषयों में उसे मोह होगा और
यस्स ञाणंं  उप्पन्नंं
जिन विषयों का उसे ज्ञान  है,
तस्स न सम्मुय्हेय्य।"
उस में उसे मोह नहीं  होगा।"

"मोहो पनस्स, भंते ! कुहिं गच्छति ?"
"किन्तु भंते ! मोह कहाँ चला जाता है ?"
"मोहो खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नेमत्ते तत्थेव निरुज्झति।"
"महाराज ! ज्ञान उत्पन्न होने से मोह का नाश हो जाता है।"

"ओपम्मं करोहि। "
"कृपया उपमा दें।"
"यथा महाराज ! कोचिदेव पुरिसो
"महाराज ! जैसे कोई पुरुष
अन्धकार गेहे पदीपं पदीपेय्य
अँधेरी कोठरी में दीया जला दे।
ततो अंधकारो निरुज्झेय्य, आलोको पातुभवेय्य
उससे अँधेरा चला जाए, आलोक उदय हो ।
एवमेव खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नमत्ते
महाराज , उसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही
मोहो तत्थेव निरुज्झति।"
मोह चला जाता है।"
स्रोत- ञाण-पञ्ञा पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
प्रस्तुति - अ  ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, November 29, 2018

प्रज्ञा की पहचान(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

‘‘भन्ते नागसेन, किं लक्खणा पञ्ञा ?’’
‘‘भन्ते नागसेन, पञ्ञा की क्या पहचान है?’’
‘‘महाराज, ओभासन लक्खणा पञ्ञा।’’
"महाराज, प्रकाशित करना  पञ्ञा की पहचान है।’’
‘‘कथं, भन्ते,  ओभासन ?’’
‘‘भन्ते, कैसे प्रकाशित करना है?’’

‘‘पञ्ञा महाराज, उप्पज्जमाना
‘‘महाराज, पञ्ञा उत्पन्न होने से
अविज्जन्धकारं विधमेति,
अविद्या रूपी अन्धकार का विध्वंश होता  है,
विज्जोभासं जनेति
’’विद्या रूपी प्रकाश पैदा होता है "
ञाणालोकं विदस्सेति। "
ज्ञान का आलोक देखाई देता है। "

‘‘ओपम्मं करोहि?’’
‘‘उपमा दीजिए’’

‘‘यथा महाराज, पुरिसो
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष
अन्धकारे गेहे पदीपं पवेसेय्य,
अँधेरे घर में दीपक के साथ प्रवेश करे
पविट्ठो पदीपो अन्धकारं विधमेति
दीपक के प्रवेश होते ही अन्धकारे का विध्वंश हो
ओभासं जनेति, आलोकं विदस्सेति
उजाला पैदा हो, आलोक देखाई दे
रूपानि पाकटानि करोन्ति ।’’
चीजें दिखने लगें ।’’

"एवमेव खो महाराज
‘‘उसी प्रकार महाराज
पञ्ञा उप्पज्जमाना
पञ्ञा के उत्पन्न होने से
अविज्जन्धकारं विधमेति,
अविद्या रूपी अन्धकार का विध्वंश होता है
विज्जोभासं जनेति,
विद्या रूपी उजाला पैदा होता है
ञाणलोकं विदस्सेति । "
ज्ञान का आलोक देखाई देता है। "

‘‘कल्लोसि, भन्ते नागसेन’’, यवनो राजा मिलिन्दो आह।
‘‘दुरुस्त है, भन्ते नागसेन।’’-यवन राजा मिलिन्द ने कहा।
स्रोत -पञा लक्खण पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

नाना धम्मा एकं अत्थं(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

"कि नु  भंते ! नागसेन,
"क्या भंते ! नागसेन,
इमे धम्मा नाना संता
ये नाना प्रकार के धर्म
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ?" राजा मिलिन्दो आह।
कार्य-निष्पादन करते हैं ?"

"आम महाराज !
"हाँ, महाराज !
इमे धम्मा नाना संता
ये धर्म नाना प्रकार के
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ।"
कार्य-निष्पादन करते हैं ?" -भंते नागसेन ने समाधान किया ।


"भंते ! ओपम्म करोहि।"
"भंते ! कृपया उपमा दें ।"

"यथा महाराज ! सेना
"महाराज ! जैसे  सेना
नाना संता हत्थी च अस्सा च रथा च पत्तीच
हाथी घोड़े, रथ और पैदल सिपाही
एकं अत्थं अभिनिफ्फादेन्ति ।
एक ही लक्ष्य पर कार्य-निष्पादन करते हैं।
 संगामे परसेनं
संग्राम में पर-सेना पर
अभिविजिन्ति
विजय प्राप्त करते हैं

एवमेव खो महाराज !
उसी तरह, महाराज !
इमे धम्मा नाना संता
ये धर्म नाना प्रकार के
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ।"
कार्य-निष्पादन करते हैं"

"कल्लोसी, भंते नागसेन !"
"भंते ! आपने ठीक कहा।  महाराजा मिलिंद ने संतुष्ट होकर कहा (स्रोत- सोळसमो: मिलिंद पञ्हो)।"
प्रस्तुति- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com  

Wednesday, November 28, 2018

अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

भंते ! क्या अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है ?
महाराज ! अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती
बल्कि, भाव से ही भाव की उत्पत्ति होती है।
कृपया उपमा दें ?

महाराज ! कुम्हार जमीन से मिटटी खोदकर
उससे अनेक प्रकार के बर्तनों को गढ़ता है।
ये बर्तन न होकर, हो जाते हैं
क्योंकि उनकी स्थिति का प्रवाह मिटटी से चला आता है।

कृपया और उपमा दें ?
महाराज ! यदि खोखला काठ, दंड, तार और
कोई बजाने वाला न हो तो वीणा बजेगी ?
नहीं भंते !
और यदि ये सभी चीजें हो तो तब ?
भंते ! तब वीणा बजेगी ।
महाराज ! इसी तरह वही चीजें पैदा होती हैं,
जिनकी स्थिति का प्रवाह पहले से चला आता है।

कृपया और उपमा दें ?
महाराज ! यदि जलाने वाला काच न हो,
सूरज की गर्मी न हो और सूखा कंडा भी न हो
तो क्या आग जलेगी ?
नहीं भंते !
और यदि सभी चीजें हो तब ?
भंते ! तब आग जलेगी।
महाराज ! इसी तरह वही चीजें पैदा होती हैं,
जिनकी स्थिति का प्रवाह पहले से चला आता है।
भंते ! आपने बिलकुल साफ कर दिया।
स्रोत- मिलिंद पञ्हो

आर. आर. पाटिल

आर. आर. पाटिल
बाबा साहब अम्बेडकर को, उनके मूव्हमेंट को जानना अच्छा लगता है और उन लोगों के बारे में भी जानना अच्छा लगता  है जो बाबासाहब के साथ थे, उनके कन्धों से कन्धा मिला कर काम करते थे।  इसी तरह की एक शख्सियत थे- आर. आर. पाटिल

 प. पू. डॉ बाबासाहब अम्बेडकर स्मारक समिति में सक्रीय सदस्य के रूप में पाटिल का योगदान हमेशा लोगों को याद रहेगा । पाटिल, प्रारम्भ से ही एड. सखाराम मेश्राम, पं. रेवारामजी कवाड़े, डॉ, स. वि. रामटेके आदि के साथ  समाज को अपनी अमूल्य सेवा देते रहे। आर आर पाटिल समता सैनिक दल  के महासचिव भी रहे।
नागपुर की एक्सप्रेस मिल में हेड क्लर्क के पद पर कार्य उनकी आजीविका का साधन था। उनकी पत्नी इंदिरा बाई भी दलित महिला विंग की सक्रीय कार्य-कर्ता थी। पाटिल साहब का निवास अम्बेडकर मुव्हमेंट के कार्य-कर्ताओं के लिए विश्राम स्थल जैसे था।  इंदिरा बाई कार्य-कर्ताओं की पूरी वात्सल्य के साथ खूब सेवा करती थी।

वा का गाणार (वासुदेवराव गाणार )
बौद्ध प्रिय आंबेडकरी चळवळीतील ज्येष्ठ नेते व रिपब्लिकन पक्षाचे नेते ,ॾॉ.बाबासाहेब आंबेडकर स्मारक समितीचे संस्थापक मा.वासुदेवजी गाणार



Tuesday, November 27, 2018

हीनयान और महायान

बुद्धवचन की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के परिणाम-स्वरूप बुद्ध का संघ स्थिरवाद(थेरवाद) और महासांघिक वर्गों में विभाजित हो गया था। बाद में स्थविरवाद को हीनयान और महासांघिक एवं उसकी उप शाखाओं को महायान नाम से पुकारा जाने लगा था। हीनयान(स्थविरवाद) बुद्ध को अलौकिक(अवलौकिक) नहीं मानता, लेकिन महायान शाक्य-मुनि को अलौकिक और लोकोत्तर मानता है। महायानी मानते हैं कि बुद्ध इस लोक में नहीं आए थे और न ही उन्होंने उपदेश दिया था। जिस बुद्ध ने उपदेश दिया था, वह केवल बुद्ध द्वारा निर्मित एक रूप था। उनके अनुसार बुद्ध का संसार में आना और धर्मोपदेश करना मात्र एक माया थी। बुद्ध लोक में पिता और स्वयंभू हैं और सदा से गृह्कूट पर्वत पर निवास करते हैं।  लेकिन हीनयान की मान्यता है कि पारमिताओं को पूर्ण कर बुद्ध इस जगत में जन्म लेते हैं, उपदेश देते हैं और महापरिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं। वह सदा जीवित रहने वाले नहीं हैं। उनका महापरिनिर्वाण हो जाने पर वह कहाँ जाते हैं, इसका कोई पता नहीं है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक, पृ 294)।

थेरवादी(हीनयानी) विचारधारा ने क्रमश: दो दार्शनिक सिद्धांतों; वैभाषिक(बाह्यवाद) एवं सौत्रान्तिक (बाह्यतरवाद) को जन्म दिया। इसी प्रकार महायान में दो दार्शनिक सिद्धांत; योगाचार(विज्ञानवाद) और माध्यामिक(शून्यवाद) विकसित हुए। इन दार्शनिक सिद्धांतों ने भारतीय दर्शन को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। अफगानिस्तान के महान दार्शनिक असंग और वसुबन्धु दोनों भाइयों ने बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में अक्षुण्य सेवा की। आचार्य नागार्जुन के द्वारा प्रतिपादित शून्यता के सिद्धांत(शून्यवाद) ने बौद्ध दर्शन को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा दिया और उसकी श्रेष्ठता और उच्चता से बौद्ध दर्शन ही नहीं, बल्कि शंकराचार्य जैसे हिन्दू दार्शनिक प्रभावित रहे बिना नहीं रह सके। शंकराचार्य ने अपने अद्वेत वेदांत की आधारशिला शून्यता के सिद्धांत (शून्यवाद) पर रखी। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य थे। गोविन्दाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य के प्रसिद्द ग्रन्थ मांडूक्यकारिका पर नागार्जुन के माध्यमिककारिका का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ का प्रभाव शंकर पर भी पड़ा। इसलिए आज भी विश्व के अनेक दार्शनिक शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कह कर पुकारते हैं(वही, पृ 294 -295)।

हीनयान अर्थात स्थविरवाद ने शील, सदाचार और वैयक्तिक निर्वाण पर अत्यधिक बल दिया था। उसके बुद्ध के दर्शन और शिक्षाओं को यथाशक्ति मूल रूप में रखने का प्रयास किया था। उधर, महायान ने भी हीनयान(थेरवाद) के शील-सदाचार, भिक्खु-चर्या को बहुत कुछ स्वीकार कर लिया था। यथार्थ में महायानी भिक्खु भी उन्हीं विनय-नियमों को मानते थे, जिन्हें हिनयानी भिक्खु भी मानते थे। इन दोनों में अंतर केवल इतना था कि महायानी आदर्श और साध्य में हीनयान के वैयक्तिक निर्वाण को हीन, स्वार्थपूर्ण मानते थे और वैयक्तिक मुक्ति के स्थान पर प्राणी-मात्र को दुक्ख से मुक्त करने के लिए अपने अनंत जन्मों का उत्सर्ग करना एकमात्र जीवन का परम एवं सर्वोच्च साध्य मानते थे। बौद्ध-धर्म के क्षणिक और अनात्मवादी दर्शन को और आगे बढ़ाते हुए महायानी भिक्खुओं ने नागार्जुन के माध्यमिक और शून्यवाद-दर्शन एवं असंग के योगाचार अथवा विज्ञानवादी दर्शन को शिखर तक पहुंचाया (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक : पृ 446)।

Monday, November 26, 2018

आचार्य सरहपा

आचार्य सरहपा
बौद्ध धर्म में सहस्त्रों दार्शनिक हुए हैं , जिनकी गिनती करना कठिन है। इन दार्शनिकों का आरंभ थेरवादी भिक्खु नागसेन से माना जा सकता है।  इस कड़ी में आठवी शताब्दी में हुए बौद्धाचार्य सरहपा भारत के इतिहास की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 445)।

इस महान कवि, संत, सिद्ध, विचारक एवं दार्शनिक के प्रादुर्भाव से एक नए यूग की सूचना मिलती है। इससे एक शताब्दी पूर्व वसुबन्धु, दिनांग और धर्मकीर्ति जैसे महायानी दार्शनिक हो चुके थे और बौद्ध धर्म हीनयान और महायान की चरम सीमा पर पहुँच चुका था। और, अब इसे मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान की उंचाईयां छूना था। आचार्य सरहपा इसके प्रणेता थे(वही)।

आचार्य सरहपा सहज जीवन के पक्ष धर थे।  वे भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य की पुरानी धारणाओं और प्रत्ययों पर सीधी चोट करते थे। बुद्ध के समय की पालि भाषा अब विस्मृत हो चली थी। अब बौद्ध विद्वान और भिक्खु   पालि के स्थान पर 'पालि- मिश्रित संस्कृत'  में बौद्ध-ग्रन्थ लिखने लगे थे। सरहपा ने भी 'पालि-संस्कृत' को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया(वही)।

सरहपा के समय एक नवीन धार्मिक प्रवाह को हम प्रवाहित होते देखते हैं जो आज भी संत-परम्परा के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। इस परम्परा में गुरु का वचन सर्वोपरि माना जाता है। सनद रहे, तिब्बती परम्परा में ला-मा का अर्थ गुरु होता है और यही वजह है कि तिब्बत में  'बुद्धं सरणं गच्छामि' ति-सरण  के स्थान में इसके पूर्व  'गुरुं सरणं गच्छामि' कह चतु-सरण का अनुशरण किया जाता हैं। तिब्बती सरहपा की शिक्षाओं को बुद्ध से अधिक मान्यता देते हैं(वही, पृ  447 )।

सरहपा के जीवन के बारे में जानकारी हमें तिब्बती ग्रंथों से प्राप्त होती हैं। प्रतीत होता है सरहपा का पूर्व नाम राहुल भद्र अथवा सरोरुह था। उन्होंने नालंदा में विद्या-अध्ययन किया था। वे नालंदा में 'महापंडित' के रूप में  प्रसिद्धि पा चुके थे।  नालंदा में रहते हुए उनके एक अध्यापक हरिभद्र थे।  हरिभद्र, धर्मकीर्ति के समान शांत रक्खित के शिष्य थे। हरिभद्र राजा धर्मपाल (770 -815  ई. )  के समकालीन थे(वही, पृ. 447 -450 )।

सरहपा ने अनेक ग्रंथों की रचना की।  उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थ, विशेषकर तंत्रों की टिकाएं एवं व्याख्याएं लिखी जो तिब्बती टी-पिटक  'कंजूर' में मिलती हैं। सरहपा की उल्लेखनीय कृतियां  'दोहाकोश', गाथा-कोश(सप्तकोश) अतिप्रसिद्ध है(वही, पृ 451-452 )।

सरहपा परिवर्तनवादी क्रान्तिकारी विचारों के सन्देश-वाहक थे। यह सन्देश उनके दोहों में सीधे जनता तक पहुंचता है। शास्त्रों को सरहपा ने रेगिस्तान कह कर सम्बोधित किया है जिनकी भूल-भुलैया से आदमी कभी निकल नहीं सकता। सरहपा के युग में जातिभेद-भाव और छुआछूत खूब था। उन्होंने इसके लिए ब्राह्मण पंडितों की खूब धुलाई की। गेरुआ वस्त्र पहने पाखंडी साधुओं को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई(वही, पृ  453-457 )।

सरहपा सहजयान के आचार्य थे। उनके पंथ को सहजयान  के नाम से जाना जाता है। सरहपा की भारत को यह सबसे बड़ी देन थी। वह पहले दार्शनिक थे जिन्होंने सहज या नैसर्गिक जीवन पर बल प्रदान किया। आज भारत में अनेक ऐसे पंथ प्रचलित हैं जो इस तारतम्य में बौद्धाचार्य सरहपा के ऋणी हैं। आगे चलकर कबीर ने भी इसी की वकालत की। आज ये विचार विद्रोही और अत्यधिक क्रांतिकारी लगते हैं किन्तु उस ज़माने में सरहपा ने जिस हौसले और बुलंदी से ये बातें कहीं, निस्संदेह आसान नहीं रही होगी(वही, पृ  458 -459 )।    

भारतस्स संविधानस्स उद्देशिका

भारतस्स संविधानस्स उद्देशिका
मयं भारतस्स जना
हम भारत के लोग
भारतं एकं संपूण्णं
भारत को एक सम्पूर्ण
पभुत-संपन्नं
प्रभुत्व-संपन्न
समाजवादी-धम्मनिरपेक्ख
समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष
लोकतन्तात्मक-गणरज्जं निम्मातुं
लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए
अपि च तस्स सब्बे नागरिके
तथा उसके सब नागरिकों को
सामाजिकं, वित्तीयं च राजनेतिकं ञायं
सामाजिक. वित्तीय और राजनैतिक न्याय
विचारस्स, अभिव्यत्तिया
विचार, अभिव्यक्ति
विस्सासस्स,  धम्मस्स च
विश्वास, धर्म और
उपासनाय स्वतन्तं
उपासना की स्वत्रंता
पतिट्ठा च अवसरस्स समता
 प्रतिष्ठा और अवसर की समता
पापेतु
प्राप्त करने के लिए
तथा तेसु सब्बेसु
तथा उन सब में
जनस्स गरिमा
व्यक्ति की गरिमा
रट्ठस्स एकता च अखंडता
राष्ट्र की एकता और अखंडता
सुनिच्छितं कुब्बन्ति बंधुता पवड्डेतुं
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए
दळह सङ्कप्पा भूत्वा
दृढ़ संकल्प होकर
अम्हाकं अस्स संविधानस्स सभायं
अपनी इस संविधान सभा में
अज्ज, छब्बीसति नवम्बर
आज,  26 नवम्बर
एकूनपंचासाधिक सतं  एकूनविसति तारिकाय
1949 ई. तारीख को
एतद द्वारा
को एतद द्वारा
एतं सविधानं
इस संविधान को
अंगीकतं अधिनियमितं च अत्तप्पित करोम।
अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
- अ ला ऊके/ @amritlalukey.blogspot.com
             

Thursday, November 22, 2018

बुद्ध की आशंका (ञाणी सुत्त)

बुद्ध की आशंका
सावत्थि में विचरण करते,
सावत्थियं विहरति,
भिक्खुओ! पूर्वकाल में दसारहो का
भूतपुब्बं भिक्खवे, दसारहानं/दसभातिकानं
'आनक' नामक एक मृदंग हुआ करता था।
आणको नाम मुदिंगो अहोसि
उसमें जब कोई छेद होता तो दसारह लोग
तस्स दसारहा आनके घटिते/फलिते
 एक खूंटी ठोंक देते थे।
अञ्ञं आणि ओदहिन्सुं
धीरे-धीरे, एक ऐसा समय आया
अहु खो सो, भिक्खवे, समयो
कि सारे मृदंग की
यं आणकस्स मुदिंगस्स
अपनी पुरानी लकड़ी कुछ भी नहीं रही।
पोराणंं पोक्खर फलकंं अन्तरधायि
सारे का सारा खूँटियों का एक खच्चर बन गया।
आणि संघाटोव अवसिस्सि ।

उसी प्रकार भिक्खुओ! भविष्य में
एवमेव खो भिक्खवे, अनागत अद्धानं
ऐसे भिक्खु होंगे
भविस्संति भिक्खू
जो तथागत ने जो सुत्त कहे हैं
ये ते सुतन्ता तथागत भासिता
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित
गंभीरा गम्भिरत्था

उनके विस्तार पूर्वक कहे
तेसु भञ्ञमानेसु
 न अच्छी तरह ध्यान देंगे
न सुस्सूसिस्संति,
न कान देंगे
न सोतं ओदहिस्संति
चित्त को समझने के लिए नहीं लगाएंगे
न अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्संति
न च ते धम्मे उग्गहेतब्बंं,
न धर्म को सीखने
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
अभ्यास करने के योग्य नहीं समझेंगे।

परन्तु,  बाहर के सावकों से कहे सूत्र
ये पन ते सुतन्ता बाहिरका सावक-भासिता
कवित, चित्ताकर्षक अक्षर- व्यंजन वाले,
कविकता कावेय्या चित्तक्खरा चित्तब्यंजना
विस्तार पूर्वक कहे
तेसु भञ्ञमानेसु
उन्हीं को सुनेंगे
सुस्सूसिस्संति
कान देंगे
सोतं ओदहिस्संति,
चित्त को समझने लगाएंगे
अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्संति
ते च धम्मे उग्गहेतब्बंं,
इन धर्मों को सीखना चाहिए
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
अध्ययन-मनन करना चाहिए, कहेंगे

इस तरह भिक्खुओ,
एवं तेसं भिक्खवे
तथागत ने जिन सूत्रों कहा
सुत्तन्तानं तथागत भासितानं
गंभीरानं गंभीरत्थानं
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित,
उनका लोप हो जाएगा।
अंतरधानं भविस्सति

इसलिए भिक्खुओ!
तस्मातिह, भिक्खवे
तुम्हें ऐसा सीखना चाहिए-
एवं सिक्खितब्बंं
तथागत ने जो गंभीर सूत्र कहे हैं
ये ते सुत्तन्ता तथागत-भासिता
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित
गंभीरा गंभीरत्था
तेसु भञ्ञमानेसु
उन्हीं विस्तार पूर्वक कहे
अच्छी तरह सुनेंगे
सुस्सूसिस्साम
कान देंगे
सोतं ओदहिस्साम
अपने चित्त को समझाएंगे
अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्साम
ते च धम्मे उग्गहेतब्बंं
कि इस धर्म को सीखना चाहिए
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
भलि प्रकार अध्ययन-मनन करना चाहिए
स्रोत- ञाणी सुत्त(19 -7 ) : संयुक्त निकाय भाग- 1
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दसारहानं/दसभातिकानं- एक क्षत्रिय जाति का नाम
आणि- मेख, नाभि
ओदहति- ध्यान देना, निगरानी रखना।
अवस- शक्तिहीन, दुर्बल, कमजोर
भञ्ञमान- विस्तारपूर्वक।     
सुस्सूसति- अच्छी तरह सुनना।
उपट्ठापेति- सेवा में उपस्थित रहना
परियापुणाति - भली प्रकार अध्ययन करना .

Wednesday, November 21, 2018

ब्याकतं, अब्याकतं(परस्सरण सुत्त)

व्याकृत और अव्याकृत
एक समय आयु. महाकास्यप और आयु. सारिपुत्त
एकं समयं आयस्मा महाकस्सपो च आयस्मा सारिपुत्तो
इसिपतन मिगदाय में विहार करते थे।
विहरन्ति इसिपतने मिगदाये
एक ओर बैठे आयु. सारिपुत्त ने आयु. महाकास्यप से कहा-
एकमन्त निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो आयसमन्तंं महाकस्सपंं एतद वोच-
"आवुस कास्यप ! क्या तथागत मरने के बाद रहते हैं ?"
"किंं नु खो आवुसो  कस्सप, होती तथागतो परं मरणा"'ति ?
"भगवान ने  इसे अव्याकृत रखा  है।"
"अब्याकतंं खो एतं,  भगवता। "

"तो क्या तथागत मरने के बाद नहीं रहते हैं ?"
"किंं   पन  आवुसो, न होती तथागतो परं मरणा"'ति ?
"आवुस, भगवान ने यह भी अव्याकृत रखा है ।"
"एवं अपि खो, आवुसो, अब्याकत  भगवता।"

"किंं  नु खो आवुसो, होति  च न च होति तथागतो परंं मरणा "'ति। ?
"तो क्या मरने के बाद तथागत रहते हैं और नहीं भी रहते ?"
"भगवान ने इसे भी अब्याकत रखा है।"
"एवं अपि खो आवुसो, अब्याकतंं भगवता। "

"कस्मा च एतं आवुसो, अब्याकतंं भगवता"'ति ?
"भगवान ने इसे आवुस, अव्याकृत क्यों रखा है ?"
"क्योंकि, वह न तो परमार्थ का साधक है, न निर्वेद का, न विराग का
" न हेतंं आवुसो, अत्थ सहितं, न निब्बिदाय, न विरागाय
 न निरोध का, न उपशमन का, न ज्ञान का और न निर्वाण का ।"
न निरोधाय, न उपसमाय, न अभिञ्ञाय, न निब्बानाय संवत्तति।
तस्मा तं  अब्याकत  भगवता"ति।

"अथ किंं  च आवुसो, ब्याकतंं  भगवता"'ति।
"तो आवुस,  भगवान ने क्या व्याकृत किया  ?"

"आवुस, यह दुक्ख है, भगवान ने यह व्याकृत किया
इदं  दुक्खं इति खो, आवुसो, ब्याकतंं भगवता
यह दुक्ख समुदाय, निरोध, निरोध गामिनी प्रतिपदा है
अयंं  दुक्ख समुदायों'ति ब्याकतंं भगवता,
अय दुक्ख निरोधो'ति ब्याकतं भगवता,
अय दुक्ख निरोध गामिनी पटिपदा'ति ब्याकतं भगवता"'ति।

कस्मा च एतं आवुसो, ब्याकतं  भगवता"'ति।
"आवुस, भगवान ने इसे क्यों व्याकृत किया ?"
"क्योंकि, यह ज्ञान का साधक है और निर्वाण का ।"
" एतं  हि आवुसो, अत्थ सहितं, निब्बिदाय, विरागाय,
 निरोधाय, उपसमाय, अभिञ्ञाय, निब्बानाय संवत्तति।
तस्मा तं  ब्याकतंं  भगवता"ति।
"क्योंकि, यही निर्वाण का हेतु है।

स्रोत- परस्सरण सुत्त (15 -12) : संयुक्त निकाय भाग- 1
-अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Tuesday, November 20, 2018

पटिच्च समुत्पाद

प्रतीत्य समुत्पाद
‘‘भन्ते नागसेन, यो उप्पज्जति
‘‘भन्ते! नागसेन, जो उत्पन्न होता है-
सो एव सो, उदाहु अञ्ञो?’’ राजा मिलिंदो आह।
वह वही है या दूसरा?’’ राजा मिलिंद ने कहा।
‘‘न च सो, न च अञ्ञो ।’’
‘‘न वही और न दूसरा ही ।’’  -नागसेन ने समाधान किया।

‘‘ओपम्मं करोहि।’’
‘‘उपमा दीजिए।’’

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज
‘‘आप क्या सोचते हैं, महाराज,
यदा त्वं उत्तानसेय्यको
जब आप चित लेटे बच्चे,
तरुणो, दहरो अहोसि,
तरुण, प्रौढ़  हुआ करते हैं ;

सो येव त्वं, एतरहि महन्तो?’’
सो क्या आप, अब भी इतने बड़े होकर वही हैं ?’’
‘‘न हि भन्ते, एतरहि अहं अञ्ञो।’’
 नहीं भंते,  अब मैं दूसरा हूँ ।’’

‘‘एवं सन्ते खो, महाराज,
यदि ऐसा है, महाराज
माता-पिता अपि च अञ्ञो भविस्सति।
तो माता-पिता भी अन्य हो जाएंगे।

किं नु खो महाराज
क्या महाराज
अञ्ञा एव कललस्स माता, अञ्ञा महन्तस्स माता,
‘‘गर्भ अवस्था में माता अन्य, बड़े होने पर अन्य होगी,
अञ्ञो सिप्पं सिक्खति, अञ्ञो सिक्खितो भवति,
अन्य शिल्प सिखाता है, अन्य शिक्षित बनता  है,
अञ्ञो पापकम्मं करोति, अञ्ञस्स हत्थपादा छिज्जन्ति!’’
 अन्य पाप-कर्म करता है, अन्य के हाथ-पैर काटे जाते हैं!’’

‘‘न हि भंते !
ऐसा नहीं है, भंते !
त्वं पन एवं वुत्ते किं वदेय्यासि।’’
‘‘किन्तु आप,  ऐसा कह क्या बताना चाहते हैं?’’

महाराज, उत्तानसेय्यको, दहरो, तरुणो च महन्तो
‘‘महाराज! बच्चा, यूवक, तरुण और प्रोढ़
इमं एव कायं निस्साय
 इसी काया में ही होने से
सब्बे ते एक संगहिता।’’
सभी एक ही होते हैं। -थेरो ने कहा।

‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
"और भी उपमा दीजिए। "

‘‘यथा महाराज, कोचि पुरिसो पदीपं पदीपेय्य।
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष  दीपक जलाए।
किं सो सब्ब रत्तिं पदीपेय्य?’
’क्या वह सारी रात जलेगा ?’’
‘‘आम भन्ते, सब्ब रत्तिं पदीपेय्य।’’
"हाँ, भंते, सारी रात जलेगा ।"

‘‘किं नु खो महाराज, या पुरिमे यामे अच्चि,
‘‘किन्तु क्या महाराज, जो पूर्व याम में लौ थी,
 सा मज्झिमे यामे अच्चि?"
’मध्य याम में वही लौ है?"
‘‘न हि भन्ते।’’
"या मज्झिमे यामे अच्चि, सा पच्छिमे यामे अच्चि ?’’
‘‘न हि भन्ते।’’

‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
‘‘यथा महाराज, खीरं दुहमानं
कालन्तरेन दधि परिवत्तेय,
दधितो नवनीतं।
नवनीततो धतं परिवत्तेय।

यो नु खो महाराज,
एवं वदेय्य- यं येव खीरं, ते येव दधि ?
यं येव दधि, तं येव नवनीतं ?
यं येव नवनीते, तं येव धतं ?
सम्मा नु खो सो, महाराज, वदमानो वदेय्य ?’’

‘‘न हि भन्ते, तं येव निस्साय सम्भूतं।’’
‘‘एवमेव खो महाराज, धम्म सन्तति सन्दहति,
अञ्ञो उप्पज्जति, अञ्ञो निरुज्झति।
अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति,
तेन न च सो, न च अञ्ञो।
पुरिम विञ्ञाणे पच्छिम विञ्ञाणं संगहं गच्छति।’’
 (स्रोत- धम्मसन्तति पन्हो: अध्दान वग्गो: पन्नरसमो : मिलिंद पण्ह)
 -अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

आचार्य शांतिदेव

आचार्य शांतिदेव
आचार्य शान्तिदेव संभवतया 7 वी सदी में हुए थे । तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ(एम विंटरनिट्ज : ए हिस्टरी ऑफ़ इंडियन लिटरेचर Vol II,  P 365-366)  के अनुसार ये गुजरात के किसी राजा के पुत्र थे और कुछ समय तक ये राजा पञ्चसिंह के राज्य में मंत्री रहे थे। किन्तु उन्हें दुनियादारी और झंझट पसंद नहीं आए और इसलिए वे गृह त्याग कर भिक्खु हो गए थे(भूमिका :बोधिचर्यावतार : अनुवादक शांति भिक्षु शास्त्री )।

आचार्य शान्तिदेव महायान शाखा के दार्शनिक थे। उन्होंने अपने दार्शनिक सिद्धांतों में महायान के अन्य प्रत्ययों के साथ-साथ शुन्यता का प्रतिपादन किया। बताया जाता है कि शान्तिदेव ने आचार्य जयदेव से प्रवज्या ग्रहण की थी। उस समय वे नालंदा  महाविहार के पीठ स्थविर धर्मपाल के उत्तराधिकारी थे। प्रव्रज्या ग्रहण करने बाद आचार्य शान्तिदेव ने नालंदा महाविहार में रह कर ही अध्ययन किया और वही पर रहकर अध्यापन भी (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 391)।

आचार्य शान्तिदेव के तीन ग्रन्थ बतलाएं जाते हैं-
1. शिक्षा समुच्चय। 2. बोधिचार्यवातर।  3. सूत्र समुच्चय।
सूत्र-समुच्चय, वर्तमान में अनुपलब्ध है। शिक्षा समुच्चय और बोधिचर्यावतार का विषय एक ही है। भेद केवल निरूपण और व्याख्या शैली का है। बिना काव्य का प्रयत्न किए ही आचार्य ने उसे धर्म का काव्य बना दिया। दूसरे, बोधिचर्यावतार और शिक्षा-समुच्चय दोनों एक दूसरे के पूरक है। बोधिचर्यावतार में शून्यवाद का प्रतिपादन किया गया है जबकि शिक्षा समुच्चय में उसका नाम कीर्तन मात्र है। शिक्षा समुच्चय सूत्रों के उध्दरणोँ से विपुल ग्रंथ हो गया है जबकि बोधिचर्यावतार में सूत्रों का यत्र-तत्र संकेत ही है{वही,  पृ 397 : डॉ धर्मकीर्ति )।

बोधिचर्यावतार-
यह किसी समय बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ था। इस कारण  इस पर अनेकों विद्वानों ने इस पर  टिकाएं लिखी थी।  भोट देश में इस ग्रन्थ का पाठ आज भी होता है। इसके पाठ को बहुत ही पवित्र कार्य और धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है। महायान धर्म और दर्शन को समझने के लिए यह उत्तम ग्रन्थ है। जिस समय आचार्य शान्तिदेव का आविर्भाव हुआ, उस समय बौद्ध धर्म पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था। बोधिचर्यावतार में सर्व-जन  कल्याण सुभाषितों का बुद्ध वचन के रूप में उदात्त भाव में समावेश है किया गया है (वही, पृ 398 )।

शिक्षा समुच्चय-
इसमें 27 कारिकाओं के द्वारा महायान शाखा की धार्मिक चर्चा का स्वरूप सूत्र रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसके उपरांत उन सूत्रों को प्रमाणित एवं समर्थन प्रदान करने के लिए उनके चारों ओर महायान सूत्रों के उद्धहरणों से उन्हें सजाया गया है(वही, पृ  391 )।

संसार बिना सिरे का

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
संसार बिना सिरे का
एक समय भगवान सावत्थि में
एकं समयं भगवा सावत्थियं
अनाथपिंडक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे।
वहां भगवान ने भिक्खुओं को आमंत्रित किया -" भिक्खुओं !"
तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि- "भिक्खुओ !"
"भदंत " -कह कर भिक्खुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
"भदन्त" इति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं।
भगवन ने ऐसा कहा-
भगवा एतद वोच-
"यह संसार बिन सिरे के है ।
"अनमतग्गायं भिक्खवे, संसारो।
पूर्व-कोटि का पता नहीं लगता।
पुब्बा कोटि न पञ्ञञायति।
भिक्खुओं! जैसे कोई पुरुष सारे जम्बूद्वीप के
सेय्यथापि भिक्खवे, पुरिसो यं इमस्मिं जम्बुद्वीपे
घास, लकड़ी, डाली, पत्ते को तोड़ कर एक जगह जमा कर दे
तिण कट्ठ  साखा  पलासं तछेत्वा एकज्झंं संहरित्वा
और चार-चार अंगुली भर के टुकडे करके फैंकता जाए-
चतु अंगुलं  चतु अंगुलं घटीकं कत्वा निक्खिपेय्य-
यह मेरी माता हुई, यह मेरी माता की माता हुई
अयं मे माता, तस्सा मे मातुया माता 'ति
उसकी माता, माता की माता का यह सिलसिला समाप्त नहीं होगा
अपरियादिन्नाव  भिक्खवे, तस्स पुरिसस्स मातु मातरो अस्सु
किन्तु यह सारे जम्बू द्वीप के
अथ  इमस्मिं जम्बुदीपे
घास, लकड़ी, डाली और पत्ते समाप्त हो जाएँगे
तिण्ण  कट्ठ  साखा  पलासं परिक्खयं परियादानं गच्छेय्य
सो क्यों भिक्खुओं !
तं किस्स हेतु ?
क्योंकि यह संसार बिन सिरे के है ।
अनमतग्गोयं  भिक्खवे, संसारो।
पूर्व-कोटि का पता नहीं लगता।"
पुब्बा कोटि न पञ्ञञायति।"
स्रोत - तिणकट्ठ  सुत्त(14-1-1) : संयुक्त निकाय भाग 1
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अनमतग्ग- जिसके प्रारम्भ(सिरे) का पता नहीं। अपरियादाति - खाली कर देना
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Monday, November 19, 2018

'दलित' वर्सेस 'बहुजन'

 इधर कुछ दिनों से 'दलित' वर्सेस 'बहुजन' पर छींटा-कसी हो रही है. मुझे लगता है, 'दलित' या 'बहुजन' में उलझने की जरुरत नहीं है. हाँ, यह सच है कि 'दलित' शब्द में आक्रोश अंतर्भूत है जबकि 'बहुजन' में अधि-संख्या का गणित है. आक्रोश, दलित साहित्य का कलेवर रहा है. दूसरे, बहुजन शब्द बुद्ध से अनुप्रेरित है जबकि दलित शब्द अम्बेडकर मूवमेंट से. अब यह हमें ही तय करना है कि हमें क्या चाहिए ? .

वल्लभी, हीनयान धम्म का केंद्र

वल्लभी, हीनयान धम्म का केंद्र 
व्हेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में वल्लभी का वर्णन किया है। व्हेनसांग के समय वलभी में 1000 मठ विद्मान थे जिसमें सम्मतीय के 600 थे। बौद्धों के अतिरिक्त कई सौ देव मंदिर भी थे जिसमें विरूधि मत के लोग उपासना करते थे।  यहाँ के लोग संपन्न थे(डॉ अवधेश सिंह :चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन, पृ 235)।

व्हेनसांग के समय मालवा के शीलादित्य नामक राजा का भतीजा और कान्यकुब्ज के नरेश हर्ष का दामाद क्षत्रिय राजा राज्य कर रहा था।  यह राजा रत्न-तयी(बुद्ध, धम्म, संघ) की ओर कुछ समय से आकृष्ट था। यह राजा प्रत्येक वर्ष बड़ी सभा आयोजित करता था जो 7 दिन तक चलती थी।  इसमें राजा महात्माओं और भिक्खुओं को विशेष रूप से आदर-सत्कार करता था(पृ 236)।

यहाँ एक विश्व-विद्यालय था जो मैत्रेक नरेशों के दान के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न था। पश्चिमी भारत का यह शिक्षा केंद्र नालंदा विश्व-विद्यालय का प्रतिद्वंदी था। इत्सिंग लिखता है कि नालंदा के समान वल्लभी में भी छात्रों को विशेष अध्ययन में तीन वर्ष का समय लगता था। शंका समाधान के निमित्त देश के प्रत्येक भाग से जिज्ञासु लीग वल्लभी आते थे। यहाँ का शिक्षा संगठन नालंदा से दो दृष्टियों से भिन्न था।  प्रथम यह कि यद्यपि वल्लभी में धार्मिक विषयों में भी शिक्षा दी जाती थी, तथापि प्र्रधानता लौकिक विषयों की ही थी। यही कारण है कि वल्लभी विश्व-विद्यालय के स्नातकों की नियुक्ति शासन सम्बन्धी उच्च पदों पर की जाती थी। नालंदा विश्व विद्यालय में प्रधान रूप से धार्मिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इत्सिंग ने दूसरा अंतर यह बताया कि नालंदा के विद्यार्थी महायान शाखा में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे , वाही वल्लभी के हीनयान मत का विशेष अध्ययन करते थे और वल्लभी के मठों में हीनयान के भिक्खु थे(पृ 235-237)।

इत्सिंग के मतानुसार नालंदा के समान वल्लभी विश्व-विद्यालय में भी विद्वानों के नाम प्रधान द्वारों पर उत्कीर्ण किए जाते थे। वल्लभी के जिन आचार्यों की प्रतिष्ठा देश में व्याप्त थी,उनमें गणभति एवं स्थिरभति उल्लेखनीय हैं।  वल्लभी में दोनों के निवास के लिए सुन्दर विहार बना हुआ था। कनिंघन ने व्हेनसांग से विवरण के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि वल्लभी राज्य में सम्पूर्ण गुजरात प्रायद्वीप, भड़ौच तथा सूरत के जिले सम्मिलित थे(पृ 237)। 

फाहियान, व्हेनसांग के समय अयोध्या

फाहियान, व्हेनसांग के समय अयोध्या
अयोध्या भारत का बहुत ही प्राचीन नगर हैं।  पालि ग्रंथों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' और अयुज्झ' आए हैं। गोतम बुद्ध का इस नगर के साथ विशेष सम्बन्ध था(डॉ अवधेश सिंह: चीनी यात्रियों के यात्रा में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन,  पृ 158 )।

फाहियान(यात्रा काल  399-414 ई ) गुप्तों के शासन काल में अयोध्या आया था। उसके अनुसार ब्राह्मण और बौद्ध मतालाम्बियों में सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार नहीं था।  उसने एक वृक्ष का वर्णन किया है जिसे विरोधियों ने अनेक बार समाप्त करने का प्रयास किया किन्तु वह पुन: वही रूप धारण कर लेता था। व्हेनसांग ने भी इस वृक्ष का उल्लेख किया है। उदय नारायण रॉय(प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन ) का मत है कि अयोध्या को गुप्त काल में वसुबन्धु(400-500 ई.) के प्रभाव के कारण संरक्षण प्राप्त होता रहा(वही)।

युवानच्वांग अर्थात व्हेनसांग (यात्रा काल  629-654 ई ) के अनुसार बुद्ध, धर्म प्रचार के सम्बन्ध में अनेक बार अयोध्या आए थे और मानव जीवन की  निस्सारता तथा क्षण-भंगुरता पर प्रभावकारी व्याख्यान दिया था। मलालशेखर(डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स) ने उल्लेख किया है कि अयोध्या के नागरिक बुद्ध के बड़े प्रशंसक थे। बुद्ध के निवास के लिए अयोध्या के समीप सुदर विहार का निर्माण भी किया गया था। कौशल राज्य के अंतर्गत सावस्थी के बाद साकेत दूसरा प्रधान नगर था।  बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों में साकेत की गणना होती थी(दीघनिकाय; महापरिनिब्बान सुत्त, महासुदस्सन सुत्त )।  इस नगर की स्थापना बुद्ध के जीवन काल में हो हो गई थी(वही)।

अयोध्या में तब, 100 संघाराम थे जिनमें महायान और हीनयान के 3000 अनुयायी साधु रहते थे और दोनों सम्प्रदायों की पुस्तकों का अध्ययन करते थे।  यहाँ 10 देव मंदिर भी थे, जिनमें थोड़े-से बौद्ध धर्म विरोधी उपासना करते थे। राजधानी में स्थित एक प्राचीन संघाराम का उल्लेख मिलता है, जहाँ पर वसुबन्धु (अभिधर्म कोष के रचियता) ने कठिन परिश्रम से हीनयान और महायान के अनेक शास्त्रों की रचना की थी।  यहाँ पर विशाल भवन की दीवार थी, जहाँ वसुबन्धु ने राजाओं तथा भिक्खुओं के समक्ष बौद्ध धर्म पर व्याख्यान दिया था। यहां के कुछ स्तूपों का भी उल्लेख मिलता है जिनमें एक अशोक द्वारा गंगा के किनारे बनवाया गया था और जिसकी ऊंचाई 200 फीट थी(वही, पृ 159 )।

अयोध्या में बुद्ध ने 'देवसमाज' को तीन मास तक धर्मोपदेश दिया था और यहाँ गत बुद्धों में भी बहुत-से चिन्ह पाएं जाते हैं। व्हेनसांग ने यह भी उल्लेख किया है कि वसुबन्धु संघाराम से पश्चिम 4-5 ली दूर एक स्तूप में बुद्ध की अस्थियाँ विद्मान थी।  उसके ऊपर एक जीर्ण-शीर्ण संघाराम था, जहाँ श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी 'विभाषा शास्त्र' लिखा था(वही )।

अयोध्या नगर के दक्षिण-पश्चिम आम्र-वाटिका में एक पुराना संघाराम था, जहाँ असंख्य बोधिसत्वों ने विद्याध्ययन किया था।  व्हेनसांग के अनुसार असंग (वसुबन्धु के बड़े भाई) ने योगाचारशास्त्र सूत्रालंकार टीका की रचना की थी।  असंग की मृत्यु के बाद वसुबन्धु ने यहाँ कई ग्रंथों की रचना की थी। वसुबन्धु की मृत्यु अयोध्या में ही हुई थी(वही)।

कनिंघम(एशेंट ज्याग्रफी ऑफ़ इंडिया), स्मिथ बी ए (दी अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ बुद्धिज़्म ) , मलालशेखर डी पी, नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी(उ प्र में बौद्ध धर्म का विकास ) आदि इतिहासकारों में कुछ साकेत और अयोध्या को अलग-अलग मानते हैं, तो कुछ एक ही मानते हैं । रिज डेविड्स(बुद्धिस्ट इंडिया) के शब्दों में  साकेत और अयोध्या लन्दन और वेस्टमिनिस्टर के समान एक दूसरे के समीपवर्ती नगर रहे होंगे। डॉ अवधेश सिंह के अनुसार प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान रिज डेविड्स का मत यहाँ अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। 
 प्रस्तुति- अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com 

Saturday, November 17, 2018

बुद्ध मोक्षदाता नहीं, मार्ग-दाता

बुद्ध हमारे आराध्य है।  हमारे इष्ट है, हमारे भगवान है। हम उनको नमन करते हैं, वंदना करते हैं। हम उन्हें पूजते हैं। मगर, हमारी यह आराधना और पूजा बुद्ध को वैसा 'देवत्व' प्रदान नहीं करती जैसे गैर-बुद्धिस्ट धर्म करते हैं। हम बुद्ध को भगवान तो मानते हैं किन्तु हमारा यह भगवान, हमें कुछ देता नहीं अथवा देने की ग्यारंटी नहीं देता जैसे अन्य भगवान अथवा अल्लाह/पैगम्बर देने का दावा करते हैं और भक्त तत्सम्बंध में आशा रखते हैं । बुद्ध न हमें देता है और न ही हम उनसे ऐसी अपेक्षा करते हैं। बुद्ध कहते हैं, मैं सिर्फ मार्ग-दाता हूँ। रास्ता दिखाने वाला हूँ। चलना तो आपको है। 
  
हमने बुद्ध की मूर्तियाँ अपने घर अथवा बुद्ध विहारों में स्थापित किया है। हम बुद्ध की वन्दना मोमबत्ती, अगरबत्ती, पुष्पादि  से करते भी हैं। मगर, फिर वही, हमारी तत्सम्बंध में कामना कुछ पाने की नहीं वरन उनके उपदेशों का अनुकरण करने की होती है। गैर बुद्धिस्ट अपने आराध्य/इष्ट के सामने नत-मस्तक हो कुछ याचना करते हैं। किन्तु एक बुद्धिस्ट 'याचक' नहीं होता, 'उपासक' होता है। वह धम्म का उपासक होता है। वह संघ का उपासक होता है। वह सीलों का उपासक होता है। वह पारमिताओं का उपासक हो  सकता है। 
   
अन्य धर्मीय देवता/भगवान, अल्लाह, पैगम्बरों की तर्ज पर बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर मानने की सोच महायानी सोच है। यह सोच अशोक काल और उसके बाद में बुद्धिज्म के अन्दर ब्राह्मणवादी ने पैदा की। अशोक के द्वारा धम्म को राज्य की ओर से आर्थिक मदद किए जाने से कई ब्राह्मण, जो बौद्ध धर्म को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते थे, बौद्ध धर्म में प्रवेश पा गए। यह ब्राह्मण मानसिकता कालांतर में बौद्ध धर्म के लिए बड़ी घातक साबित हुई । इस ब्राह्मणी सोच ने वे सारी चीजें बौद्ध में डाल दी जिसका बुद्ध, आजीवन विरोध करते रहे और जो ब्राह्मण ग्रंथों की बुनियाद हैं। 

 में उनका वर्गीय स्वार्थ उन्हें बौद्ध दर्शन को  उत्पन्न महायानी चिंतन-धारा ने बुद्ध के मानवीय रूप और उनके बहुजन-कल्याण की धम्म देशना का अथाह नुकसान किया, जैसे की बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने अपनी अमर कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में कहा है. निस्संदेह, हमें बुद्ध की वंदना आँख बंद कर नहीं, वरन आँख खोल कर करना है. ति-पिटक ग्रंथों को पूजना नहीं, पढ़ना/अध्ययन करना है. 

सनद रहे, आँख बंद कर पद्मासन में बैठने वाली बुद्ध की मूर्ति महायानी चिंतन-धारा है. बाबासाहब डॉ अम्बेडकर, बुद्ध की मूर्ति खड़े / चारिका करते हुए पसंद करते थे. क्योंकि इस में गति है. गति, धम्म का केंद्र है. रूकावट का विरोध है. परिवर्तन की चाह है.

Friday, November 16, 2018

बुद्ध को अपनी प्रशंसा पसंद नहीं थी

एक समय बुद्ध नालंदा में पावारिक आम्रवन में विहार करते थे।
एकं समयं भगवा नालंदायं विहरति पावारिक अम्बवने।
एक और बैठे आयु. सारिपुत्त तथागत से बोले-
अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो तेनुपसंकमित्वा भगवन्तं एतदवोच-
"भंते! भगवान पर मेरी दृढ़ आस्था है
"एवं पसन्नो अहं, भंते ! भगवति
ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ।"
 "सारिपुत्त! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है। एक लपेट में सभी को ले लिया है--
"उलाळा खो त्वं अयं सारिपुत्त, आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो--

सारिपुत्त ! क्या तुमने अतीत काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध हुए हैं
किंं नु सारिपुत्त, ये ते अहेसुंं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा
सबको अपने चित्त से जान लिया है-
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले थे, इस प्रज्ञा  वाले थे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो अहेसुंं, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो अहेसुंं वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! क्या तुमने भविष्य काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध होंगे,
किंं पन ते सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा,
सबको अपने चित्त से जान लिया है
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले होंगे, इस प्रज्ञा  वाले होंगे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो भविस्सन्ति वा  ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! जो वर्त्तमान में अर्हत सम्मा सम्बुद्ध हैं
किंं पन ते सारिपुत्त, एतरहि अरहं सम्मा सम्बुद्धो
अपने चित्त से जान लिया है कि
चेतसा चेतो परिच्च विदितो-
वे इस विनय वाले हैं, इस प्रज्ञा  वाले हैं ?"
एवं सीलो भगवा वा , एवं पञ्ञो भगवा वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

"सारिपुत्त! जब तुमने न अतीत, न भविष्य, न वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से जाना
"एत्थ च ते सारिपुत्त ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं नत्थि।
तब, क्यों सरिपुत्त ! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है, एक लपेट में सभी को ले लिया है
अथ किंं एतरहि त्यायं सारिपुत्त,  उलाळा आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो
कि ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो  व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ?"

"भगवान ! मैंने अतीत, भविष्य और  वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से नहीं जाना है
"न खो मे तं भंते ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु  अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं  अत्थि,
किन्तु 'धम्म-विनय' को अच्छी तरह समझ लिया है।"
अपि च मे धम्मन्वयो विदितो।"

"ठीक है, ठीक है ! सरिपुत्त,  धम्म की इस बात को तुम, भिक्खु, भिक्खुनी, उपासक, उपासिकाओं के बीच बताते रहना।
साधु, साधु साधु ! सरिपुत्त !  तस्मातिह त्वं इमं धम्म परियायं अभिक्खणं भासेय्यासि भिक्खुनं भिक्खनीनं उपासकानं, उपासिकानं।
सारिपुत्त, जिन अज्ञ लोगों को बुद्ध में शंका या विमति होगी, यह बात सुनकर दूर होगी
 येसं अपि  हि, सारिपुत्त, मोघ पुरिसानं भविस्सति तथागते कंखा वा विमति वा, तेसं अपि मं धम्म परियायं सुत्वा या तथागते कंखा या विमति वा सा पहीयस्सति(नालन्द सुत्त : संयुक्त निकाय :45-2-2 )।
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आसभि- आर्ष भी, वृषभ/सांड/बैल के समान। परिच्च- समझ कर। अभिक्खण- क्षण प्रति-क्षण/निरंतर। भिय्यो भिञ्ञतरो- अत्यधिक।  - प्रस्तुति - अ ला उके  @amritlalukey.blogspot.com  

Wednesday, November 14, 2018

परलोक के पचड़े

परलोक के पचड़े
अमेरिकी राजनीतिज्ञ और दार्शनिक कर्नल रॉबर्ट जी इंगरसोल(1833-99 ) अज्ञेय वादी थे। वे पर-लोक के पचड़ों से दूर थे। जिस तरह बुद्ध,  पर-लोक को, उससे सम्बंधित चर्चा को, एक अच्छा जीवन जीने के लिए असम्बद्ध मानते थे, कर्नल इंगरसोल भी उसे बेमतलब की और टाइम-पास चर्चा समझते थे। उनका मत था कि चूँकि हम नहीं जानते कि कोई पर-लोक है या नहीं; फिर, इस पर माथा-पच्ची क्यों होना चाहिए ? 

कर्नल इंगरसोल के विरोधी, 'तू लोगों का पर-लोक नष्ट करता है', कह कर उसकी आलोचना करते थे। इस पर कर्नल इंगरसोल का उत्तर होता था- 'मैं किसी का भी पर-लोक नष्ट करने नहीं जाता।  लेकिन बहुत-से लोग हैं जो गरीब किसानों  का, दरिद्र मजदूरों का, अनाथ स्त्रियों और असहाय बच्चों का इह-लोक नष्ट करने पर उतारूं हैं। ऐसे पण्डे-पुरोहितों से, ऐसे पादरियों से, ऐसे मुल्लाओं से मैं उन असमर्थ लोगों के इह-लोक को बचाए रखने का प्रयास करता हूँ(स्रोत- दर्शन, वेद से मार्क्स तक : भदन्त आनंद कौसल्यायन)। प्रस्तुति- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com 

Tuesday, November 13, 2018

महायान का उदगम


चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित हीनयान और महायान
चीनी यात्री फाहियान, व्हेनसांग ने हीनयान और महायान का उल्लेख किया है। इत्सिंग ने हीनयान और महायान दोनों को बुद्ध शासन कहा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला मार्ग स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि जो महायानी सूत्रों का पाठ करता है, वह महायानी और ऐसा नहीं करने वाले हीनयानी  है(बौद्ध धर्म का अध्ययन, पृ 155 : डॉ अवधेश सिंह )।


1. डॉ भदन्त आनंद कौसल्यायन -
प्रचलित मत है कि बौद्ध धर्म चार दार्शनिक सम्प्रदायों में विभक्त है। किन्तु सारे पालि बौद्ध वांगमय में इन सौत्रान्तिक से लेकर माध्यमिक तक चारों तथाकथित बौद्ध सम्प्रदायों में से किसी एक का भी पता नहीं है। इतना कहा जा सकता है कि बुद्ध के लगभग एक हजार वर्ष बाद भारत में जो बौद्ध चिंतन-परम्परा चालु थी, जिनमें कुछ न कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन होता रहा था, उसी के ये चारों बुद्धोत्तर कालीन विभाजीकरण है(दर्शन, वेद से मार्क्स पृ  130 )।

इन चारों को शुद्ध महायानी भी कहना उसी प्रकार कठिन है जैसा आज के स्थविरवाद  को शुद्ध स्थविरवाद कहना। ठीक बात यह है कि यह महायान और हीनयान की विभाजक रेखा भी चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने की बजाए कुछ अधिक धूमिल ही करती है(वही)।

इस विभाजन का यदि कुछ अर्थ है तो इतना ही कि सिंहल द्वीप, बर्मा, स्याम(थाईलैंड) तथा कम्बोडिया में बौद्ध धर्म और भिक्खुओं की आचार-परम्परा का जो रूप है,वह स्थविर वाद या थेरवाद कहलाता है। दूसरी ओर, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया आदि एशिया खंड के अन्य देशों में जो रूप प्रचलित है, वह महायान कहलाता है(वही)।

मूल पालि वांग्मय ही जिन देशों में धर्म-ग्रथों के रूप में आदृत है, पूजित है, पढ़ा-लिखा जाता है, वे स्थविर वादी देश हैं।  वही, मूल बौद्ध संस्कृत वांगमय अपने तिब्बती, चीनी, जापानी आदि भाषाओँ में अनिदित होकर जहाँ आदृत है, वे महायानी देश हैं(130-131 )।

भले ही सौत्रान्तिक हो या वैभाषिक या योगाचार अथवा माध्यमिक, एक बात याद रखनी चाहिए कि ये सभी बौद्ध सम्प्रदाय है और कुछ ऐसी सीमाएं है जो इन सभी के लिए अलंघ्य है।  जैसे; कोई भी बौद्ध सम्प्रदाय ईश्वरवादी नहीं हो सकता, आत्मवादी नहीं हो सकता,शब्द-प्रमाण वादी नहीं हो सकता और प्रतीत्य-समुत्पाद के नियम से इंकार नहीं कर सकता(133 )।

2. राहुल संकृत्यायन 
बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष बाद, वैशाली की संगीति के समय बौद्ध धर्म स्थविरवाद  और महासान्घिक नामक दो निकायों में विभक्त हो गया। इसके 125 वर्षों बाद और भी विभाग होकर, 'कथावत्थु' की अट्ठकथा के अनुसार,  उसके 18 निकाय बन गए(पुरातत्व निबंधावली,  पृ 121)।

बुद्ध के जीवन में ही उनके शिष्य गंधार, गुजरात(सूनापरांत), पैठन(हैदराबाद राज्य) तक पहुँच चुके थे। धीरे-धीरे भिक्खुओं के उत्साह एवं अशोक, मिलिंद, इन्द्राग्निमित्र आदि सम्राटों की भक्ति और सहायता से इसका प्रसार और भी अधिक हो गया। अशोक का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने भारत की सीमा के बाहर के देशों में धम्म प्रचारकों के भेजे जाने में बहुत सहायता की। अशोक( ई पू तृतीय शताब्दी) के बाद बौद्ध धर्म सभी जगह फ़ैल चुका था। अशोक की सहायता, चाहे एक ही निकाय के लिए रही हो, लेकिन दूसरे निकायों ने भी अच्छा प्रसार किया था। शुंगों और काण्वों के बाद, आंध्र या आंध्रभृत्य सम्राट हुए।  इनकी राजधानी प्रतिष्ठान(पैठन), महाराष्ट्र थी। पीछे धान्यकटक दूसरी राजधानी बनी (वही, पृ 122)।

शातकर्णी  या शातवाहन/शालिवाहन आंध्र राजा, प्रारंभ में उत्तरीय भारत के शासक थे किन्तु बाद में दक्षिण के होकर रह गए । सातवाहनों का बौद्ध धर्म पर विशेष अनुराग था, यह उनके पहाड़ काट कर बने गुहा विहारों में खुदे शिलालेखों से मालूम होता है। राजधानी धान्य-कटक(अमरावती) में उनके बनाए भव्य स्तूप, नाना मूर्तियाँ, लताओं तथा चित्रों से अलंकृत संगमरमर की पट्टिकाएं, स्तम्भ, तोरण आज भी उनकी श्रद्धा के जीवित नमूने हैं। वस्तुत: बौद्धों के लिए शातवाहन राजवंश(100 ई पू से 300 ई  तक) पुराने मौर्यों या पिछले पालवंश की तरह था। नाशिक, कार्ला, अजंता, एलोरा की गुहाओं का प्रारंभ भी इन्हीं के समय हुआ था  (वही, पृ 123)।

प्रतीत होता है, महासान्घिकों से अन्धक निकायों( 'अपरशैलीय', 'पूर्वशैलीय', 'राजगिरिक', 'सिद्धार्थिक' आदि) का जन्म हुआ, क्योंकि आन्ध्र-साम्राज्य में महासंघिकों का बहुत अधिक प्रचार और प्रभाव था(पृ 126- 127).
।  यह चारों ही अन्धक निकाय, आन्ध्र-सम्राटों के समय बहुत ही उन्नत अवस्था में थे। आन्ध्र राजा और उनकी रानियों का बौद्ध धर्म पर कितना अवस्था अनुराग था, यह हमें अमरावती और नागार्जुनी-कोंडा के मिले शिलालेखों से मालूम पड़ता है(वही,129)।

कथावत्थु की अट्ठकथा में वैपुल्यवादियों को महा शून्यवादी कहा गया है। हमें मालूम ही है कि नागार्जुन शून्यवाद के आचार्य कहे जाते हैं। इस प्रकार वैपुल्यवाद और महायान एक सिद्ध होते है। यद्यपि कथावत्थु के अंतिम भाग(17, 18 और  23) में आया यह प्रसंग बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें 'शून्यवाद' का खंडन नहीं है(वही, पृ 130)।

सामान्य तौर पर चीन और तिब्बतीय कंजूर परम्परा में महायानी सूत्रों में प्रज्ञापारमिता, रत्नकूट, वैपुल्य, अवतंसक आदि आते हैं। विपुल से ही वैपुल्यवाद अस्तित्व में आया जो कालांतर में महायान प्रसिद्द कहलाया  (पृ 131)। दरअसल,  महायान, पूर्व शैलीय आदि चार अन्धक सम्प्रदायों तथा वैपुल्यवाद  के सम्मिश्रण का नाम है। और जैसे कि हमने ऊपर देखा, अन्धक सम्प्रदायादि आंध्र-देश की, खास कर गुंटूर जिले के वर्तमान धरनीकोट की उपज है।  यहाँ यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि महायान सूत्र बराबर परिवर्तित और परिवर्द्धित किए जाते रहे हैं(वही पृ 132)।

वैपुल्यवाद ईसा पूर्व पहली शताब्दी में सिंहल पहुंचा था। इसके कुछ सूत्रों का चीनी अनुवाद ईसा की दूसरी शताब्दी में हो चूका था। इसके प्रचार में सबसे ऊंच स्थान नागार्जुन का है। नागार्जुन का वास-स्थान श्री पर्वत धान्य कटक था। आंध्र-राजा शातवाहन, नागार्जुन का घनिष्ट मित्र था (नागार्जुन ने शातवाहन राजा के नाम 'सुह्रल्लेख' नामक पत्र लिखा था जो चीनी और भोटिया भाषा में अब भी सुरक्षित है )। इनके सिद्धांत अन्धकों से मिलते थे। प्रतीत होता है, वैपुल्य वाद का केंद्र भी श्रीधान्य कटक के पास ही था(वही पृ 133)।   

3 . डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय-
महायान के उदभव के विषय में महायान सूत्रों में प्रकाशित मत ऐतिहासिक दृष्टि से स्वभावत: संदेह उत्पन्न  करता है। महायान सूत्र अपने को बुद्ध प्रोक्त बताते हैं। किन्तु उनकी भाषा और शैली उनकी परवर्तिता सूचित करती है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 306)।

कदाचित अष्टसाहत्रिका प्रज्ञापारमिता ही महायान सूत्रों में प्राचीनतम है।  इसका लोकरक्ष ने चीनी में 148 ई  में अनुवाद किया था।  कनिष्क के समकालीन नागार्जुन ने पांच-विशति साहत्रिका प्रज्ञापारमिता पर व्याख्या लिखी थी। इससे प्रज्ञा पारमिता साहित्य की परिणति ईसवीय दूसरी शताब्दी से प्राचीनतर अवश्य सिद्ध होती है। जब स्वयं ये महायान सूत्र ही बुद्ध के युग से पर्याप्त परवर्ती, एवं संदिग्ध-प्रामाण्य हैं तो इन में प्रतिपादित महायान की मूल सलग्न प्राचीनता स्वत: असिद्ध हो जाती है। इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से महायान को सद्धर्म का विपरिवर्तित अथवा विकृत रूप मानने की संभावना प्रस्तुत होती है(वही)।

इस विपरिवर्तन का प्रधान कारण सद्धर्म का प्रसार और उसके साथ सम्बद्ध ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव प्रतीत होते हैं। यह स्वाभाविक है कि सद्धर्म के प्रसार की गति अशोक के समान श्रद्धालु और प्रतापी सम्राट के संरक्षण एवं सहाय्य से तथा तत्कालीन संघ के प्रयत्नों से विशेष तीव्र हुई हो। यह निस्संदेह है कि इसी समय से सद्धर्म भारतीय वास्तुकला तथा मूर्तिकला की एक प्रधान प्रेरणा के रूप में प्रकट होता है एवं जातकों का महत्त्व विशेष वृद्धि प्राप्त करता है(पृ 307)।

हीनयान के विभिन्न प्रादेशिक आवासों की स्थापना ने निकाय-भेद के क्रम को अग्रसर होने में सहायता दी। इन में महासंघिक सम्प्रदाय ने बुद्ध और बोधिसत्वों को देवोपम लोकोत्तर रूप में चित्रित किया एवं गांधार तथा मथुरा में ग्रीक और भारतीय कला के संपर्क तथा भक्ति के आग्रह से बुद्ध प्रतिमा का आविर्भाव हुआ । लोकोत्तर बुद्ध और बोधिसत्व, उनकी भक्ति और प्रतिमाएं इन नवीन तत्वों ने इस सद्धर्म को एक जन-सुलभ सुबोध और सुन्दर रूप प्रदान किया(पृ 308)। 

प्रारम्भिक बौद्ध धर्म एवं हीनयान में साधना अपेक्षा कृत दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति को सर्वथा अपने प्रयत्न के और पुरुषकार के द्वारा सांसारिक सुखों को छोड़ कर ही दुक्ख से छुटकारा प्राप्त करना होता है। बुद्ध केवल मार्ग का उपदेश करते हैं। धर्म प्रत्यात्मवेदनीय है। साधारण मनुष्यों के लिए अपने सहारे अपने बंधनों को काटना कठिन होता है(वही)।

महायान में बुद्ध और बोधिसत्व नाना प्रकार से मार्ग में सहायक बन जाते हैं। अवलोकितेश्वर का नाम लेने से ही मनुष्य नाना कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है। मूर्तियों के सहारे बुद्ध और बोधिसत्व बौद्धों के समक्ष प्रत्यक्षवत समुपस्थित हो उठते हैं।  वे सर्वज्ञ, शक्तिसंपन्न तथा परम कारुणिक हैं।  उनके अर्चन और अनुग्रह के द्वारा मुक्ति का मार्ग केवल अपने पुरुष्कार की अपेक्षा अधिक प्रशस्त प्रतीत होता है(वही)।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अशोक के समय से सद्धर्म के प्रचार के लिए विशेषत: प्रत्यंतिम जनपदों में, उसे एक सरल और मूर्त रूप देने का जो प्रयास जारी था उसने क्रमश: महायान को जन्म दिया। इस परिणाम-क्रम में नाना सम्प्रदायों, धर्मों और जातियों के प्रभाव से महायान में विभिन्न तत्वों का समावेश हुआ(पृ 308-309)।

हीनयान ही मूल और प्रारंभिक बुद्ध शासन था जिसके वांगमय की प्राचीनता निस्संदेह है। महायान परवर्ती और विपरिवार्तित बौद्ध धर्म है जिसने प्राचीन साहित्य के अभाव में नवीन 'प्रक्षिप्त सूत्रों' की रचना की। महायान के आचार्यों ने स्वयं महायान की अप्रमाणिकता के निरास का बहुधा प्रयत्न किया है। इस प्रसंग में महायान सूत्रालन्कार एवं बोधिचर्यावतार में अनेक युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं जिनमें अनेक स्पष्ट ही प्राचीनतर सुत्र्रों पर आश्रित है।

न तो हीनयान के सब शास्त्रों और सिद्धांतों को मूल बुद्ध-शासन समझा जा सकता है, न महायान के। मूल बुद्धोपदेश अवश्य ही शिष्यों के अधिकार-भेद से विविध था। काल-क्रम से मूल-देशना परवर्ती व्याख्या-कान्तार तथा प्रक्षिप्त-सन्दर्भ-राशि में अधिकाधिक दुर्लभ हो गई। हीनयान के 18 सम्प्रदायों में बुद्धोपदेश को भिक्खुओं के समान विहारवासी बना दिया दिया।  विशाल विश्व के जीवन और ज्ञान-विज्ञानं का त्याग कर भिक्खु को अपने विहार के सीमित संसार में आत्म-कल्याण साधना चाहिए।  इसके लिए कौन-से 'धर्म' हेय हैं, कौन-से उपादेय, इसकी चर्चा विपुलाकार अभिधर्म पितकों में की गई। ये पिटक और इनकी व्याख्याएँ बुद्ध वचन न होते हुए भी कल्पना-प्राचुर्य तथा आग्रह के द्वारा इनका बुद्ध से सम्बन्ध जोड़ा गया(पृ 311)।

यह स्पष्ट है कि हीनयान को मूल बुद्ध शासन न मान कर उसका एक साथ ही विपरिवर्तित अथवा विकसित रूप मानना चाहिए। यही दशा महायान की है। यह सत्य है कि महायान सूत्र हीनयान के आगमों से परवर्ती हैं और यह भी सत्य है कि हीनयान में स्वीकृत सूत्रो से ही मूल शासन का पता चल सकता है(पृ 311)।

महायानी सूत्र

प्रसिद्ध महायानी सूत्र-
प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्र, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्र, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि।

महायान सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है।  दूसरी कोटि में सुखावती व्यूह, कारंड व्यूह आदि सूत्र आते हैं।  इनमे सर्वाधिक महत्त्व सद्धर्मपुंडरिक सूत्र का है(गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, पृ  339)।

 महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(महायान का उदगम और साहित्य: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास,  पृ. 328-333: गोविद चन्द्र पाण्डेय )।

प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिाका, अष्टसाहस्त्रिाका, पञ्चविंशतिसाहस्त्रिाका,  शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।

अवतंसकसूत्र- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्र उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्र तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।

महायान सूत्रों के अनुसार तथागत ने हीनयान का उपदेश पांच परिव्राजकों के समक्ष सारनाथ के प्रसिद्द धम्म चक्क पवत्तन के द्वारा किया था, किन्तु महायान का उपदेश उन्होंने राजगृह के गृध्र कूट-पर्वत पर बोधिसत्वों की विपुल और विलक्षण सभा में किया था। अमितार्थ सूत्र के अनुसार सम्बोधि के 40 वर्ष के अनंतर तथागत ने अमितार्थ सूत्र का प्रकाशन किया था(वही, पृ 303 )।

महायान सूत्रों और परम्परा के आधार पर चीन के प्राचीन बौद्ध विद्वानों ने तथागत की धम्म देशना के काल को तीन विभागों में बांटा है।  पहले काल-विभाग में, जो कि तीन सप्ताह के अनन्तर प्रारंभ होता है, तथागत ने अवंतसक सूत्रों का उपदेश किया, किन्तु उन्होंने जनता को इन सूत्रों के अवबोध में अक्षम पाया।  दूसरे काल-विभाग में उन्होंने 'चार आगमों' की देशना की।  यह वस्तुत उनका 'उपायोपदेश' था।  अंतत: देशना के तीसरे काल में तथागत ने सद्धर्म पुंडरिक, प्रज्ञा पारमिता, महायान- महा परिनिर्वाणसूत्र एवं महा वैपुल्य-सूत्रों का प्रकाश किया। तिब्बती परम्परा के अनुसार गृध्र कूट का द्वितीय धम्म चक्क पवत्तन सम्बोधि के 16 वर्ष पश्चात हुआ था(पृ 303)।