Monday, April 23, 2018

महा पंडित राहुल सांकृत्यायन

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ( 1893-1969)
महा पंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म ब्राह्मण जैसी हिन्दू समाज की उच्च जाति में हुआ था।  किन्तु , उनका सारा जीवन समाज के उपेक्षितों और दबे-कुचलों के लिए धड़का था। वे मार्क्स वादी चिंतन धारा के निष्णांत पंडित, चिन्तक, विचारक और अध्येयता रहे।  विश्व की 26  भाषाओँ के वे ज्ञाता थे।  उन्होंने अपना अधिकांश जीवन घुमक्कड़ी में बिताया।  राहुल संकृत्यायन जैसा घुमक्कड़ साधू और मानव इतिहास का अध्येयता आपको शायद ही मिले।

राहुलजी का जन्म 9 अप्रेल 1893 को हुआ था। उनके बचपन का नाम केदारनाथ था। उनके पिता का नाम गोवर्धन पांडे आजमगढ़ जिला, कनैला गांव के साधारण किसान थे। उनके माता का नाम कुलवंती देवी था।
‘दुनिया देखने के लिए’ केदार 13 वर्ष की अवस्था में घर से भाग गए।  तब उन्होंने छठवी कक्षा ही उत्तीर्ण की थी। वे प्रारम्भ से ही विद्रोही स्वभाव के थे। वे कई बार घर से भागे थे। यात्रा की ललक तथा ज्ञान की भूख उन्हें दुनियां घूमने को उत्साहित करती थी। इस घूमक्कड़ी में उनका सहवास कितने ही बाबाओं और धार्मिक-मठों से हुआ। वे इन मठों में रहकर सिध्दियां प्राप्त करते रहें, किन्तु न तो उन्हें कोई सिध्दि प्राप्त हुई और न ही किसी देवी-देवता ने उन्हें दर्शन दिए।
इस बीच उनकी मुलाकात महान तर्कवादी पंडित रामवतार शर्मा से हुई। उनके प्रोत्साहन से राहुल ने वाराणसी के दयानन्द स्कूल में 7 वीं कक्षा में दाखिला ले लिया। इसी समय छपरा(बिहार) के परसा नामक स्थान के एक मठाधीश महंत लक्ष्मणदास शिष्य की तलाश में बनारस आये थे। सित. 1912 में राहुल महंतजी के शिष्य होकर परसा चले गए। उनका नाम केदारनाथ से बदलकर ‘रामउदार दास’ कर दिया गया।
किन्तु रामउदार दास यहां भी अधिक समय टिक नहीं सकें। ‘ज्ञान की भूख’ और ‘यात्रा की ललक’ ने उन्हें परसा छोड़ने पर विवश कर दिया। इस बार उन्होंने दक्षिण भारत का रुख किया। साधु रामउदार दक्षिण भारत के तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते हुए अयोध्या पहुंच गए। यहां उनका सम्पर्क आर्य-समाज के प्रचारकों से हुआ। किन्तु आर्य समाज से भी शीघ्र ही उनका मोह-भंग हो गया।
इसी बीच राहुल सन् 1917 के मध्य लखनऊ के बौध्द भिक्षु बोधानंद के सम्पर्क में आए। उन्हें बुध्द के उपदेशों ने प्रभावित किया। वैदिक दर्शन जो उन्हें नहीं दे सका, शायद वह सब उन्हें बुध्द के दर्शन में मिला था। उन्होंने बुध्द को पढ़ना जारी रखा। 1920 में 27 वर्ष की आयु में पहली बार वे लुम्बिनी गए, जहां बुध्द का जन्म हुआ था। बोधगया गए, जहां बुध्द ने बोधि प्राप्त की थी। राहुल सांस्कृत्यायन ने उन सभी पवित्र-स्थलों की यात्रा की जहां विहार करते बुध्द ने धम्म देसना की थी।
अब राहुलजी ने राजनीति में कदम रखा। भारतीय राष्टीय कांग्रेस के असयोग आन्दोलन में सक्रिय भागीदार की। वे कई बार जेल गए। सन् 1922 के दशक में,  बुध्दगया के बोधिमहाविहार को उसके वैध स्वामियों अर्थात बौध्दों को हस्तांतरित करने की कांग्रेसी नेताओं से आग्रह किया किन्तु इसमें वे सफल नहीं हुए।
राहुल सांस्कृत्यायन सन् 1923 में नेपाल यात्रा पर गए। वहां वे चीन और मंगोलिया से आए बौध्द भिक्खुओं के सम्पर्क में आए। वर्ष 1926 में उन्होंने ‘एक खतरनाक यात्रा’ लद्दाख की किया। लौटते हुए पंजाब में उनकी भेट हरनामदास उर्फ ब्रह्मचारी विश्वनाथ से हुई।
भारत की महाबोधि सोसायटी के पूज्य सिरिनिवास नायक थेरा और डी. वलिसिंहा की सिफारिस पर राहुल सांस्कृत्यायन 16 मई 1927 को सीलोन में विद्यालंकार परिवेण में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए। इस समय तक राहुल हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाओं का अच्छा ज्ञान अर्जित कर चुके थे। अब उन्होंने पालि पर ध्यान दिया कुछसमय में समूचे तिपिटक ग्रंथों में महारत हासिल कर ली। इसके लिए उन्हें ति-पिटकाचार्य की उच्चतम उपाधि से विभूषित किया गया। इसी बीच उन्होंने सिंहनी भाषा भी सीखी।
राहुल सांस्कृत्यायन के निमंत्रण पर उनके मित्र ब्रह्मचारी विश्वनाथ भी सिरिलंका पहुंच गए। यही पर ब्रह्मचारी विश्वनाथ ने 10 फर. 1928 को धम्म में उपसम्पदा ग्रहण की। अब वे भिक्खु आनन्द कोसल्यायन हो गए।
वर्ष 1929 में राहुल ने उन बौध्द ग्रंथों की खोज के लिए तिब्बत की यात्रा की जो बौध्द धर्म को नेस्तनाबूद करने हिन्दू शासको के साथ-साथ मुस्लिम आतताईयों के आक्रमण के दौर में बौघ्द भिक्खु धम्म-ग्रंथों के साथ जान बचाकर भागे थे।। क्योंकि भारत में यह अप्राप्त थे।
तिब्बत में राहुल सांस्कृत्यायन ने कई प्राचीनतम बौध्द मठों की खोज-खबर ली। उन्होंने कई दुर्लभ  बौध्द ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर भारत लाया। विनय और सूत्र के 108 खंडों वाले कंजूर और विभिन्न अभिधर्म ग्रंथों  के 125 खंडों वाले तंजूर के अतिरिक्त वह 1619 तिब्बति पांडुलिपियां और चित्र भी लाए। यह अनमोल साहित्यिक खजाना उन्होंने पटना म्यूजियम को भेंट कर दिया।
तिब्बत से लौटने पर साधु रामउदार दास ने अपने मित्र भिखु आनन्द कौसल्यायन के गुरू पूज्य एल. धम्मानन्द महानायक थेरा से 20 जुलाई 1930 को धम्म की विधिवत् दीक्षा ली। अब राहुल सांकृत्यायन ने बौध्द धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रंथ लिखना प्रारम्भ किया। उनका प्रसिध्द ग्रंथ ‘बुद्धचर्या’ वर्ष 1930 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1932 में वे भदन्त आनन्द कौसल्यायन के साथ महाबोधि सोसायटी की ओर लंदन गए।
इसी बीच जगदीश नारायण नामक एक युवक से राहुल सांकृत्यायन से भेट हुई जिन्होंने अगले ही वर्ष सीलोन जाकर विद्यालंकार परिवेण के प्रमुख पूज्य धम्मानंद महानायक थेरा के हाथों धम्म की दीक्षा ली। उनका नाम अब भिक्षु जगदीश काश्यप हो गया था।
कुछ ही दिनों के बाद इस ‘तिकड़ी’ ने बौध्द धर्म के पुनर्जागरण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका पहला बड़ा योगदान था- पालि ग्रंथों का हिन्दी में उपलब्ध कराना। इन पुस्तकों के प्रकाशन का भार अनागारिक धम्मपाल द्वारा भारत में स्थापित महाबोधि सोसायटी ने उठाया। इस प्रकार वर्ष 1933 के बाद से धम्मपद, मज्झिम निकाय, विनय पिटक, दीघ निकाय, संयुक्त निकाय, उदान, सुत्तनिपात, जातक और मिलिन्द पह आदि ग्रंथ हिन्दी में उपलब्ध हुए।
इसी बीच राहुल सांकृत्यायन 3 बार तिब्बत हो आए। उन्होंने कई सारे मूल्यवान बौध्द ग्रंथ जो भारत में अनुपलब्ध थे, अपने साथ लाए। इन ग्रंथों की खोज में उन्होंने भारी मेहनत की। यहां ला कर उनमें से कुछ को उन्होंने स्वयं संपादित और प्रकाशित किया। उन्होंने जापान, कोरिया, सोवियत रूस आदि देशों की यात्रा की। इसी बीच सोवियत अकादमी ने उन्हें लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। वे नव. 1937 से जन 1938 तक वहां अध्यापन करते रहे। यहां उनकी भेंट एक युवा रुसी महिला लोला(एलेना नार्वेरतोव्ना) से हुई जो भारत-तिब्बति विभाग की सचिव थी। वह महिला राहुल सांकृत्यायन से संस्कृत सिखने लगी तो इस दरम्यान उसने राहुल से विवाह करने की इच्छा प्रगट की। फलस्वरूप राहुलजी को बौध्द भिक्खु के वस्त्र त्यागने पड़े।
रूस से लौटने के बाद राहुल सांकृत्यायन एक फिर राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने किसानों के हित में कई आन्दोलन किये। वर्ष 1940-42 के 29 महिने उन्होंने हजारीबाग और देवली की जेलों में काटे। उनके प्रसिध्द ग्रंथ ‘दर्शन-दिर्ग्शन, ‘मानव समाज’ और वोल्गा से गंगा’ प्रकाशित हुए।
जुलाई 1945 में रुसी सरकार ने उन्हें सोवियत संघ आने का निमंत्रण दिया और लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में उन्हें संस्कृत का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया। इस अवधि (1945 से 1947) में उन्होंने वहां हिन्दी, संस्कृत, तिब्बति और बौध्द तर्कशास्त्र का अध्ययन किया। उनकी पत्नी लोला और पुत्र ईशोर भी लेनिनग्राड में थें। वे अग. 1947 में अकेले ही भारत लौट आए।
वर्ष 1947-48 में राहुल सांकृत्यायन को उन्हें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। भारत सरकार ने उन्हें संविधान अनुवाद समिति का सदस्य नामजद किया। एक नेपाली महिला कुमारी कमला पेरियार जो उनके टाइप का काम सम्भाले थी, से वर्ष 1950 में उन्होंने विवाह कर लिया।
इस बीच दो खंडों में लगभग 2,000 पृष्ठों में ‘मध्य एशिया का इतिहास’ ग्रंथ उनका प्रकाशित हुआ। इस कृति के लिए उन्हें वर्ष 1958 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।
राहुल सांकृत्यायन असाधारण बुध्दिजीवी और विद्वान थे। उन्हें अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे। बौध्द धर्म से संबंधित उनकी कृतियां हैं- बुध्दचर्या(1930), धम्मपद(1933), मज्झिम निकाय(1933), विनय पिटक(1934), दीघ निकाय(1935), तिब्बत में बौध्द धर्म(1935), बौध्द दर्शन(1942), महामानव बुध्द(1956), बौध्द संस्कृति। सावत्थि पर उनका एक निबन्ध 1964 में प्रकाशित हुआ। बौध्द इतिहास और धर्म से संबंधित उनकी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं- वोल्गा से गंगा, दर्शन-दिग्दर्शन, अतित से वर्तमान। इसके अलावा लद्दाख, किन्नौर, श्रीलंका, तिब्बत, चीन और जापान की उनकी यात्राओं के वृतान्त हैं।
राहुल सांस्कृत्यायन ने बौध्द धर्म से संबंधित संस्कृत की जिन कृतियों का संपादन और अनुवाद किया, वे हैं-अभिधर्म कोश(1930), विज्ञिप्तिमात्रता सिध्दि(1934), प्रमाणवार्तिक(1935), अध्यार्घ शतक(1935), प्रमाणवार्तिक भाष्य(1936),  प्रमाणवार्तिक स्ववृति(1936), प्रमाणवार्तित स्ववृति टीका(1937), विग्रहव्यवर्तिनी, वाद न्याय, विनय सूत्रा(1943), हेतु बिन्दू(1944), सम्बंध-परीक्षा(1944), निदान सूत्रा परीक्षा(1951), महापरिनिर्वाण सूत्रा(1951)।
राहुल सांकृत्यायन को उनकी विद्वता के लिए काशी पण्डित सभा ने  उन्हें सन् 1939 में ‘महापण्डित’ की उपाधि से उन्हें नवाजा था। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया था। राहुलजी सन् 1959 से 1961 तक श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। लम्बी बिमारी के बाद इस महापुरुष ने 14 अप्रेल 1963 को 70 वर्ष। की उम्र में अंतिम सांस ली। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित कर उनकी असाधारण विद्वता को स्मरण किया(संदर्भ-1 ‘लेखक परिचय’; बौध्द संस्कृति: राहुल सांकृत्यायन।  2. अनुवादक परिचयः विनय-पिटक)।


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